Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 160
________________ सूर्यप्रज्ञप्ति-५/-/३६ १५९ (प्राभृत-५) [३६] सूर्य की लेश्या कहां प्रतिहत होती है ? इस विषय में बीस प्रतिपत्तियां है । -(१) मन्दर पर्वत में, (२) मेरु पर्वत में, (३) मनोरम पर्वत में, (४) सुदर्शन पर्वत में, (५) स्वंप्रभ पर्वत में, (६) गिरिराज पर्वत में, (७) रत्नोच्चय पर्वत में, (८) शिलोच्चय पर्वत में, (९) लोकमध्य पर्वत में, (१०) लोकनाभी पर्वत में, (११) अच्छ पर्वत में, (१२) सूर्यावर्त पर्वत में, (१३) सूर्यावरण पर्वत में, (१४) उत्तम पर्वत में, (१५) दिगादि पर्वत में, (१६) अवतंस पर्वत में, (१७) धरणीखील पर्वत में, (१८) धरणीश्रृंग पर्वत में, (१९) पर्वतेन्द्र पर्वत में, (२०) पर्वतराज पर्वत में सूर्य लेश्या प्रतिहत होती है । भगवंत फरमाते है कि यह लेश्या मंदर पर्वत यावत् पर्वतराज पर्वत में प्रतिहत होती है । जो पुद्गल सूर्य की लेश्या को स्पर्श करते है, वहीं पुद्गल सूर्यलेश्या को प्रतिहत करते है । चरमलेश्या अन्तर्गत् पुद्गल भी सूर्य लेश्या को प्रतिहत करते है । (प्राभृत-६) [३७] सूर्य की प्रकाश संस्थिति किस प्रकार की है ? इस विषय में अन्य मतवादी पच्चीश प्रतिपत्तियां है, वह इस प्रकार है-(१) अनु समय में सूर्य का प्रकाश अन्यत्र उत्पन्न होता है, भिन्नता से विनष्ट होता है, (२) अनुमुहूर्त में अन्यत्र उत्पन्न होता है, अन्यत्र नाश होता है; (३) रात्रिदिन में अन्यत्र उत्पन्न होकर अन्यत्र विनाश होता है; (४) अन्य पक्ष में, (५) अन्य मास में, (६) अनुऋतु में, (७) अनुअयन में, (८) अनुसंवत्सर में, (९) अनुयुग में, (१०) अनुशतवर्ष में, (११) अनुसहस्र वर्ष में, (१२) अनुलक्ष वर्ष में, (१३) अनुपूर्व में, (१४) अनुशतपूर्व में, (१५) अनुसहस्रपूर्व में, (१६) अनुलक्षपूर्व में, (१७) अनुपल्योपम में, (१८) अनुशतपल्योपम में, (१९) अनुसहस्रपल्योपम में, (२०) अनुलक्षपल्वोपम में, (२१) अनुसागरोपम में, (२२) अनुशत सागरोपम में, (२३) अनुसहस्रसागरोपम में, (२४) अनुलक्षसागरोपम में, (२५) अनुउत्सर्पिणी अवसर्पिणी में सूर्य का प्रकाश अन्यत्र उत्पन्न होता है, अन्यत्र विनष्ट होता है । भगवंत फरमाते है कि-त्रीश-त्रीश मुहर्त पर्यन्त सूर्य का प्रकाश अवस्थित रहता है, इसके बाद वह अनवस्थित हो जाता है । छह मास पर्यन्त सूर्य का प्रकाश न्यून होता है और छह मास पर्यन्त बढता रहता है । क्योंकी जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल से निष्क्रमण करके गमन करता है, उस समय उत्कृष्ट अठ्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रम्यमान सूर्य नए संवत्सर को प्राप्त करके प्रथम अहोरात्रि में अभ्यन्तर मंडल से उपसंक्रमण करके जब गमन करता है तब एक अहोरात्र में दिवस क्षेत्र के प्रकाश को एक भाग न्यून करता है और रात्रि में एक भाग की वृद्धि होती है, मंडल का १८३० भाग से छेद करता है । उस समय दो-एकसठ्ठांश भाग दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । वही सूर्य जब दूसरे अहोरात्र में निष्क्रमण करके तीसरे मंडल में गति करता है । तब दो अहोरात्र में दो भाग प्रमाण दिवस क्षेत्र की हानि और रात्रि क्षेत्र की वृद्धि होती है । मंडल का १८३० भाग से छेद होता है । चार एकसठ्ठांश मुहूर्त प्रमाण दिनकी हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । निश्चय से इसी अभिलाप से निष्क्रम्यमान सूर्य अनन्तर अनन्तर मंडलो में गमन करता

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