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सूर्यप्रज्ञप्ति-९/-/४१
१६३ दिन होता है तब दो पौरुषीछाया को सूर्य उत्पन्न करता है । जो यह कहते है कि सूर्य चार पौरुषी छाया उत्पन्न करता है और किंचित् भी नहीं उत्पन्न करता - उस मतानुसार - सर्वाभ्यन्तर मंडल को संक्रमण करके सूर्य गमन करता है तब रात्रि-दिन पूर्ववत् ही होते है, लेकिन उदय
और अस्तकाल में लेश्या की अभिवृद्धि करके दो पौरुपीछाया को उत्पन्न करते है, जब वह सर्वबाह्य मंडल में गमन करता है तब लेश्या की अभिवृद्धि किए बिना, उदय और अस्तकाल में किंचित् भी पौरुषी छाया को उत्पन्न नहीं करता ।
हे भगवन् ! फिर सूर्य कितने प्रमाण की पौरुषीछाया को निवर्तित करता है ? इस विषय में ९६ प्रतिपत्तियां है । एक कहता है कि ऐसा देश है जहां सूर्य एक पौरुषी छाया को निवर्तित करता है । दुसरा कहता है कि सूर्य दो पौरुषीछाया को निवर्तित करता है।...यावत्...९६ पौरुषीछाया को निवर्तित करता है । इनमें जो एक पौरुषीछाया के निवर्तन का कथन करते है, उस मतानुसार-सूर्य के सबसे नीचे के स्थान से सूर्य के प्रतिघात से बहार निकली हुई लेश्या से ताडित हुइ लेश्या, इस रत्नप्रभापृथ्वी के समभूतल भूभाग से जितने प्रमाणवाले प्रदेश में सूर्य उर्ध्व व्यवस्थित होता है, इतने प्रमाण से सम मार्ग से एक संख्या प्रमाणवाले छायानुमान से एक पौरुषीछाया को निवर्तित करता है । इसी प्रकार से इसी अभिलापसे ९६ प्रतिपत्तियां समझ लेना ।। . भगवन् फिर फरमाते है कि-वह सूर्य उनसाठ पौरुषीछाया को उत्पन्न करता है । अर्ध पौरुषीछाया दिवसका कितना भाग व्यतीत होने के बाद उत्पन्न होती है ? दिन का तीसरा भाग व्यतीत होने के बाद उत्पन्न होती है । पुरुष प्रमाणछाया दिन के चतुर्थ भाग व्यतीत होने के बाद उत्पन्न होती है, यर्द्धपुरुष प्रमाणछाया दिन का पंचमांश भाग व्यतीत होते उत्पन्न होती है इस प्रकार यावत् पच्चीश प्रकार की छाया का वर्णन है । वह इस प्रकार है-खंभछाया, रज्जुछाया, प्राकारछाया, प्रासादछाया, उद्गमछाया, उच्चत्वछाया, अनुलोमछाया, प्रतिलोमछाया, आरंभिता, उवहिता, समा, प्रतिहता, खीलच्छाया, पक्षच्छाया, पूर्वउदग्रा, पृष्ठउदग्रा, पूर्वकंठभागोपगता, पश्चिमकंठभागोपगता, छायानुवादिनी, कंठानुवादिनी, छाया छायच्छाया, छायाविकंपा, वेहासकडच्छाया और गोलच्छाया । गोलच्छाया के आठ भेद है-गोलच्छाया, अपार्धगोलच्छाया, गोलगोलछाया, अपार्धगोलछाया, गोलावलिछाया, अपार्धगोलावलिछाया, गोलपुंजछाया और अपार्धगोलपुंज छाया । प्राभृत-९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(प्राभृत-१०)
प्राभूत-प्राभूत-१ [४२] योग अर्थात् नक्षत्रो की युति के सम्बन्ध में वस्तु का आवलिकानिपात कैसे होता है ? इस विषय में पांच प्रतिपत्तियां है - एक कहता है-नक्षत्र कृतिका से भरणी तक है । दुसरा कहता है-मघा से अश्लेषा पर्यन्त नक्षत्र है । तीसरा कहता है-धनिष्ठा से श्रवण तक सब नक्षत्र है । चौथा - अश्विनी से रेखती तक नक्षत्र आवलिका है । पांचवाँ - नक्षत्र भरणी से अश्विनी तक है । भगवंत फरमाते है कि यह आवलिका अभिजीत से उत्तराषाढा पर्यन्त है ।