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प्रज्ञापना- ३०/-/५७४
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है । इस अभिप्राय से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारा से... यावत् देखते है, जानते नहीं है । इसी प्रकार यावत् ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी, परमाणु पुद्गल तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को केवली देखते है किन्तु जानते नहीं । पद - ३० - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
पद - ३१ - " संज्ञी "
[५७५] भगवन् ! जीव संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं, अथवा नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी हैं ? गौतम ! तीनो है । भगवन् ! नैरयिक संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं अथवा नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी हैं ? गौतम ! नैरयिक संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक कहना । पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को भी जानना । मनुष्यों को समुच्चय जीवों के समान जानना । पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और वाणव्यन्तरों, नारकों के समान है । ज्योतिष्क और वैमानिक सीर्फ संज्ञी होते हैं । सिद्ध सीर्फ नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी हैं ।
[५७६] 'नारक तिर्यञ्च, मनुष्य वाणव्यन्तर और असुरकुमारादि भवनवासी संज्ञी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं । विकलेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं तथा ज्योतिष्क और वैमानिक देव संज्ञी ही होते हैं ।
पद - ३१ - जका मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण पद - ३२- "संयत"
[५७७] भगवन् ! जीव क्या संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं, अथवा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? गौतम ! चारो ही होते हैं । भगवन् ! नैरयिक संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं या नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? गौतम ! नैरयिक असंयत होते हैं । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक जानना । पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक क्या संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न है । गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंयत या संयतासंयत होते हैं । मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना । सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! सिद्ध नोसंयत-नो असंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ।
[ ५७८] जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत होते हैं । तिर्यञ्च संयत नहीं होते । शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव तथा नारक असंयत होते हैं । पद - ३३ - " अवधि"
[५७९] तेतीसवें पद में सात अधिकार है-भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर - बाह्य, देशावधि, अवधि का क्षय और वृद्धि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती ।
[५८० ] भगवन् ! अवधि कितने प्रकार का है ? गौतम ! अवधि दो प्रकार का है, -भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । दो को भव- प्रत्ययिक अवधि होता है, देवों और नारकों को । दो को क्षायोपशमिक होता है, मनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यग्यों को ।
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