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प्रज्ञापना-१७/३/४६०
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[४६०] भगवन् ! कृष्णलेश्यी नैरयिक कृष्णलेश्यी दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता और देखता है ? गौतम ! बहुत अधिक क्षेत्र न जानता है न देखता है न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता और देख पाता है, थोड़े से अधिक क्षेत्र को ही जानता है और देखता है । क्योंकीगौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित दूसरे पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बारबार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और देखता है, यावत् थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देखता है । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक...यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है । भगवन् ! नीललेश्यी वाला नारक, कृष्णलेश्यी वाले नारक की अपेक्षा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अवधि द्वारा देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और देखता है ? गौतम ! बहुतर क्षेत्र को, दूरतर क्षेत्र को, वितिमिरतर और विशुद्धतर जानता है तथा देखता है । क्योंकी-गौतम ! जैसे कोई पुरुष अतीव सम, रमणीय भूमिभाग से पर्वत पर चढ़ कर सभी दिशाओं-विदिशाओं में अवलोकन करे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा, सब तरफ देखता हुआ बहुतर यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है । इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्यी नारक, कृष्णलेश्यी की अपेक्षा क्षेत्र को यावत् विशुद्धतर जानता-देखता है । भगवन् ! कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा अवधि से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है ? - गौतम ! पूर्ववत् समझना, यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है ।
[४६१] भगवन् ! कृष्णलेश्यी जीव कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में । यदि दो में हो तो आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान में होता है, तीन में हो तो आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा आभिनिबोधिक श्रुत और मनःपर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो आभिनिबोधिकज्ञान यावत् मनःपर्यवज्ञान में होता है । इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्यी जीव में समझना । शुक्ललेश्यी जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है । यदि दो तीन या चार ज्ञानों में हो तो कृष्णलेश्यी के समान जानना। यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है ।
पद-१७ उद्देशक-४ | [४६२] परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाह, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व, (ये पन्द्रह अधिकार चतुर्थ उद्देशक में है ।
[४६३] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? गौतम ! छह, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। भगवन् ! कया कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त हो कर उसी रूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस
और स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? हाँ, गौतम ! होती है । क्योंकी-जैसे छाछ आदि खटाई का जावण पाकर दूध अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग पाकर उस रूप में, यावत् उसी के स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! यावत् पुनः पुनःपरिणत होती है । इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त