Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 77
________________ ७६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? उनका आकार कैसा है ? उनका आकारभाव प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! जम्बूद्वीप से आरम्भ होने वाले द्वीप हैं और लवणसमुद्र से आरम्भ होने वाले समुद्र हैं । वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं । विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं, दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुभोभित हैं । ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं । [१६२] उन द्वीप समुद्रों में यह जम्बूद्वीप सबसे आभ्यन्तर है, सबसे छोटा है, गोलाकार है, तेल में तले पूए के आकार का गोल है, रथ के पहिये के समान गोल है, कमल की कर्णिका के आकार का गोल है, पूनम के चांद के समान गोल है । यह एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है । ३१६२२७ योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला है । ___यह जम्बूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह जगती आठ योजन ऊंची है । उसका विस्तार मूल में बारह योजन, मध्यम में आठ योजन और ऊपर चार योजन है । मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतली है । वह गाय की पूंछ के आकार की है । वह पूरी तरह वज्ररत्न की बनी हुई है । वह स्फटिक की तरह स्वच्छ है, चिकनी है, घिसी हुई होने से मृदु है । वह घिसी हुई, मंजी हुई रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरुपघात दीप्तिवाली, प्रभावाली, किरणोंवाली, उद्योतवाली, प्रसन्नता पैदा करनेवाली, दर्शनीय, सुन्दर और अति सुन्दर है । वह जगती एक जालियों के समूह से सब दिशाओं में घिरी हुई है । (अर्थात् उसमें सब तरफ झरोखे और रोशनदान हैं) । वह जाल-समूह आधा योजन ऊँचा, पांच सौ धनुष विस्तार वाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् सुन्दर और बहुत सुन्दर है । [१६३] उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका है । वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तारवाली है । वह सर्वरत्नमय है । उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है । यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है । उसके नेम वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक सोने चाँदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं । यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों के बने हए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के चित्र भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं । मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त चित्र अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं । अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों के बने हैं । उसके पक्ष अंकरत्नों के बने हैं । बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं । बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगाये गये बांस भी ज्योतिरत्न के हैं । बांसों के ऊपर छप्पर पर दी जाने वाली लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएँ चाँदी की बनी हैं । कंभाओं को ढांकने के लिए उनके ऊपर जो ओहाडणियाँ हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ

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