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जीवाजीवाभिगम-३/वैमा.-२/३३७
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[३३८] भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम वे देव दो प्रकार के हैं वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले । उनमें जो वैक्रियशरीर वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करनेवाले, यावत् प्रतिरूप हैं । जो अवैक्रियशरीर वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं । सौधर्म-ईशान कल्पों में देवियां दो प्रकार की हैं-उत्तरवैक्रियशरीर वाली
और अवैक्रियशरीर वाली । इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली है वे स्वर्ण के नूपुरादि आभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किंकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई हैं, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, चन्द्र के समान विलासवाली हैं, अर्धचन्द्र के समान भालवाली हैं, वेश्रृंगार की साक्षात मूर्ति हैं और सुन्दर परिधान वाली हैं, वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, सौन्दर्य की प्रतीक हैं । उनमें जो अविकुर्वित शरीरवाली हैं वे आभूषणों और वस्त्रों से रहित स्वाभाविक-सहज सौन्दर्य वाली हैं । सौधर्म-ईशान को छोड़कर शेष कल्पों में देव ही हैं, वहां देवियां नहीं हैं । अतः अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का पूर्ववत् करना। ग्रैवेयकदेवों आभरण और वस्त्रों की विभूषा से रहित हैं, स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं । वहां देवियां नहीं हैं । इसी प्रकार अनुत्तरविमान के देवों को जानना ।
[३३९] भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! इष्ट शब्द, यावत् इष्ट स्पर्श जन्य मुखों का । ग्रैवेयकदेवों तक यही कहना । अनुत्तरविमान के देव अनुत्तर शब्द यावत् अनुत्तरस्पर्श जन्य मुख अनुभवते हैं ।
[३४०] सब वैमानिक देवों की स्थिति तथा देवभव से च्यवकर कहां उत्पन्न होते हैंयह उद्धर्तनाद्वार कहना ।
[३४१] भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथिवीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, आसन-शयन यावत् भण्डोपकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हो चुके हैं । शेष कल्पों में ऐसा ही कहना, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं कहना । ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना। अनुत्तरोपपातिक विमानों में पूर्ववत् कहना, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना ।
[३४२] भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । तिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । मनुष्यों की भी यही है । देवों की स्थिति नैरयिकों के समान जानना । देव और नारक की जो स्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा है तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । मनुष्य, मनुष्य के रूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक है । नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । तिर्यंचयोनियों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सो सागरोपम का होता है ।
३४३] भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण