Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 179
________________ १७८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद [१२७] वृत्त, बाहर के पत्ते और कर्णिका, ये सब एकजीवरूप हैं । इनके भीतरी पत्ते, केसर और मिंजा भी प्रत्येकजीवी हैं । [१२८] वेणु, नल, इक्षुवाटिक, समासेक्षु, इक्कड, रंड, करकर, सुंठी, विहंगु, तृणों तथा पर्व वाली वनस्पतियों के जो - [१२९] अक्षि, पर्व तथा बलिमोटक हों, वे सब एकजीवात्मक हैं । इनके पत्र प्रत्येकजीवी हैं, और इनके पुष्प अनेकजीवी हैं । [१३०] पुष्यफल, कालिंग, तुम्ब, त्रपुष, एलवालुस, वालुक, घोषाटक, पटोल, तिन्दूक फल इनके सब पत्ते प्रत्येक जीव से (पृथक्-पृथक्) अधिष्ठित होते हैं । [१३१] तथा वृन्त, गुद्दा और गिर, के सहित तथा केसर सहित या अकेसर मिंजा, ये, सब एक-एक जीवी हैं । [१३२] सप्फाक, सद्यात, उव्वेहलिया, कुहण, कन्दुक्य ये सब अनन्तजीवी हैं; किन्तु कन्दुक्य वनस्पति में भजना है । [१३३] योनिभूत बीज में जीव उत्पन्न होता है, वह जीव वहीं अथवा अन्य कोई जीव (भी वहाँ उत्पन्न हो सकता है ।) जो जीव मूल (रूप) में होता है, वह जीव प्रथम पत्र के रूप में भी (परिणत होता) है ।। [१३४] सभी किसलय ऊगता हुआ अवश्य ही अनन्तकाय है । वही वृद्धि पाता हुआ प्रत्येक शरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है । [१३५] एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीरनिष्पति एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही प्राणापान ग्रहण होता है, एक काल में ही उच्छ्वास और निःश्वास होता है । [१३६] एक जीव का जो (पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से जीवों का ग्रहण करना (समझना ।) और जो (पुद्गलों का) ग्रहण बहुत-से जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है । [१३७] साधारण जीवों का आहार भी साधारण ही होता है, प्राणापान का ग्रहण भी साधारण होता है । यह (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना ।) [१३८] जैसे अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हुए के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होता है । [१३९] एक, दो, तीन, संख्यात अथवा (असंख्यात) निगोदों का देखना शक्य नहीं है । (केवल) (अनन्त-) निगोद-जीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं । [१४०] लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उसका माप किया जाए तो ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं । [१४१] एक-एक लोकाकाश-प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे असंख्यात-लोकाकाश हो जाते हैं । [१४२] प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव घनीकृत प्रतर के असंख्यातभाग मात्र होते हैं । अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के और

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