Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 202
________________ प्रज्ञापना-स-/२२२ २०१ भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मध्यम ग्रैवेयकों के ऊपर यावत् दूर जाने पर, वहाँ उपरितन ग्रेवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट हैं, शेष वर्णन पूर्ववत् । विशेप यह कि यहां विमानावास एक सौ होते है । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना। [२३३] अधस्तन ग्रैवेयकों में १११, मध्यम ग्रैवेयकों में १०७, उपरितन के ग्रैवेयकों में १०० और अनुत्तरौपपातिक देवों के पांच ही विमान हैं । [२३४] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् तीनों ग्रैवेयकप्रस्तटों के विमानवासों को पार करके उससे आगे सुदूर स्थित, पांच दिशाओं में रज से रहित, निर्मल, अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पांच अनुत्तर विमान हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकसम स्वच्छ, यावत् प्रतिरूप हैं । वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत-से अनुत्तरौपपातिक देव निवास करते हैं । वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न, यावत् 'अहमिन्द्र' हैं । [२३५] भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है । उसकी परिधि योजन १४२०३२४९ से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के बहुत मध्यभाग में आठ योजन का क्षेत्र है, जो आठ योजन मोटा है। उसके अनन्तर अनुक्रम से प्रदेशों की कमी होते जाने से, हीन होती-होती वह सबसे अन्त में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी है । ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बारह नाम हैं । ईषत्, ईषत्प्राग्भारा, तनु, तनु-तनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, लोकाग्र, लोकाग्र-स्तूपिका, लोकाग्रप्रतिवाहिनी और सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा । ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी श्वेत है, शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्णवाली, उत्तान छत्र के आकार में स्थित, पूर्णरूप से अर्जुनस्वर्ण के समान श्वेत, स्फटिक-सी स्वच्छ, चिकनी, कोमल, घिसी हई, निर्मल, निष्पंक, निरावरण छायायुक्त, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी से निःश्रेणीगति से क योजन पर लोक का अन्त है । उस योजन का जो ऊपरी गव्यूति है, उस गव्यूति का जो ऊपरी छठा भाग है, वहाँ सादि-अनन्त, अनेक जन्म, जरा, मरण, योनिसंसरण, बाधा, पुनर्भव, गर्भवासरूप वसति तथा प्रपंच से अतीत सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं । वहाँ भी वे वेदरहित, वेदनारहित, ममत्वरहित, संगरहित, संसार से सर्वथा विमुक्त एवं (आत्म) प्रदेशों से बने हुए आकार वाले हैं । [२३६] 'सिद्ध कहाँ प्रतिहत हैं ? सिद्ध किस स्थान में प्रतिष्ठित हैं ? कहाँ शरीर को त्याग कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? [२३७] अलोक के कारण सिद्ध प्रतिहत हैं । वे लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं तथा यहाँ शरीर को त्याग कर वहाँ जा कर सिद्ध हो जाते हैं ।

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