Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 197
________________ १९६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवार (२२४] हास और हासरति, श्वेत और महाश्वेत, पतंग और पतंगपति । [२२५] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिष्क देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से ७९० योजन की ऊंचाई पर ११० योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे असंख्यात लाख ज्योतिष्कविमानावास है । वे विमान आधा कवीठ के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं । वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं । विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्रविचित्र हैं; हवा से उड़ी हुई विजय-वैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र से युक्त हैं, वे बहुत ऊँचे, गगनतलचुम्बी शिखरों वाले हैं । (उनकी) जालियों के बीच में लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं, मानी पीजरे से बाहर निकाले गए हों । वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं । उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं । तिलकों तथा रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्रविचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं । वे अंदर और बाहर से चिकने हैं । उनके प्रस्तट सोने की रुचिर बालू वाले हैं । वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं । इन में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक, ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति करते हैं तथा गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पांच वर्षों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त मंडल में गति करने वाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं ।) (इन सब में से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है । ये महर्द्धिक होते हैं,' इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझना । वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानावासों का, हजारों सामानिक देवों का, सपरिवार अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का, सेनाधिपति देवों का, हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व करते हुए...यावत् विचरण करते हैं । इन्हीं में दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज-चन्द्रमा और सूर्य-निवास करते हैं; 'जो महर्द्धिक हैं' (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों ज्योतिष्कविमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं । [२२६] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ, अनेक हजार, अनेक लाख, बहुत करोड़, और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के ८४,९७,०२३ विमान एवं विमानावास है । वे विमान सर्वरत्नमय, स्वच्छ,

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