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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
छोड़ कर मध्य में तीन हजार योजनों में नारकावास होते है ।
[२००] (नारकावासों की संख्या) (छठी नरक तक लाख की संख्या में) तीस, पच्चीस, पन्द्रह, दस, तीन तथा पाँच कम एक और सातवीं नरकपृथ्वी में केवल पांच ही अनुत्तर नरक हैं ।
[२०१] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वलोक और अधोलोक में उसके एकदेशभाग में, तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाबों में नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरना में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, क्यारियों अथवा खेतों में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों एवं जल के स्थानों में; उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
(२०२] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर पैंतालीस लाख योजनों में, ढाई द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तर्वीपों में हैं । उपपात और स्वस्थान से लोकके असंख्यात भागमें और समुद्धात से सर्वलोक में है ।
[२०३] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! १,८०,००० योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीच में १,७८,००० योजन में भवनवासी देवों के ७,७२,००,००० भवनावास है । वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्त्र तथा नीचे पुष्कर की कर्णिका के आकार के हैं । चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट है । प्राकारों, अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से (वे भवन) सुशोभित हैं । (तथा वे भवन) विविध यन्त्रों शतघ्नियों, मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से चारों ओर वेष्टित हैं; तथा वे शत्रुओं द्वारा अयोध्या, सदाजय, सदागुप्त, एवं अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय किंकरदेवों के दण्डों से उपरिक्षत हैं । लीपने और पोतने के कारण प्रशस्त रहते हैं । गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से पांचों अंगुलियों के छापे लगे होते हैं । चन्दन के कलश रखे हैं । उनके तोरण
और प्रतिद्वारदेश के भाग चन्दन के घड़ों से सुशोभित हैं । (वे भवन) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के कलाप से युक्त होते हैं; पंचरंगे ताजे सरस सुगन्धित पुष्पों से युक्त हैं । वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की. महकती हुई सुगन्ध से रमणीय, उत्तम सुगन्धित होने से गंधवट्टी के समान लगते हैं । वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भलीभांति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, आवरणरहित कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योतयुक्त, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं सुरूप होते हैं । इन भवनों में भवनवासी देवों के स्थान हैं । उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वे भवनवासी देव इस प्रकार हैं
[२०४] असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार ।