Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 180
________________ प्रज्ञापना-१/-/१४२ १७९ साधारण जीवों का परिमाण अनन्तलोक के समान है । [१४३] "इन शरीरों के द्वारा स्पष्टरूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है । सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य हैं । क्योकि ये आँखों से दिखाई नहीं देते । [१४४] अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियां हों, (उन्हें साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय में लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेना । वे सभी वनस्पतिकाय जीव संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक । उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त हैं । उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से हजारों प्रकार हैं । उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं । पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक (बादर) पर्याप्तक जीव होता है, वहां कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (प्रत्येक) अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं। [१४५] कन्द, कन्दमूल, वृक्षमूल, गुच्छ, गुल्म, वल्ली, वेणु, और तृण । तथा [१४६] पद्म, उत्पल, श्रृंगाटक, हढ, शैवाल, कृष्णक, पनक, अवक, कच्छ, भाणी और कन्दक्य । [१४७] (इन वनस्पतियों की) त्वचा, छल्ली, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, मूल, अग्र, मध्य और बीज (इन) में से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गई है । [१४८] यह हुआ साधारणशरीर वनस्पतिकायिक का स्वरूप । [१४९] वे द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के है ? अनेक प्रकार के हैं । -पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक, शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा, सौक्तिक, मौक्तिक, कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त, शम्बूक, मातृवाह, शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्रलिक्षा । अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, (उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए ।) ये सभी (द्वीन्द्रिय) सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के हैं । पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते है । [१५०] वह (पूर्वोक्त) त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है । औपयिक, रोहिणीक, कंथु, पिपीलिका, उद्देशक, उद्देहिका, उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काठाहार, मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेदुरणमजिक, त्रपुषमिजिक, कार्पासास्थिमिजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा, किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृन्त, इन्द्रिकायिक, इन्द्रगोपक, उरुलुंचक, कुस्थलवाहक, यूका, हालाहल, पिशुक, शतपादिका, गोम्ही और हस्तिशौण्ड । इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों, उन्हें त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न समझना । ये सब सम्मूर्छिम और नपुंसक हैं । ये संक्षेप में, दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रियजीवों के सात लाख जाति कुलकोटि-योनिप्रमुख हैं । [१५१] वह चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना कैसी है ? अनेक प्रकार की है । [१५२] अंधिक, नेत्रिक, मक्खी, मगमृगकीट, पतंगा, ढिंकुण, कुकुड, कुक्कुह, नन्द्यावर्त और श्रृंगिरिट । तथा

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