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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
शंखकार, दन्तकार, भाण्डकार, जिह्वाकार, शैल्यकार, और कोडिकार, इसी प्रकार के अन्य जितने भी हैं, उन सबको शिल्पार्य समझना ।
भाषार्य वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं, और जहाँ भी ब्राह्मी लिपि प्रचलित है । ब्राह्मी लिपि अठारह प्रकार है। ब्राह्मी, यवनानी, दोषापुरिका, खरौष्ट्री, पुष्करशारिका, भोगवतिका, प्रहरादिका, अन्ताक्षरिका, अक्षरपुष्टिका, वैनयिका, निहविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्शलिपि, माहेश्वरी, तामिली और पौलिन्दी ।
__ज्ञानार्य पांच प्रकार के हैं । आभिनिबोधिकज्ञानार्य, श्रुतज्ञानार्य, अवधिज्ञानार्य, मनःपर्यवज्ञानार्य और केवलज्ञानार्य । दर्शनार्य दो प्रकार के हैं । सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य। सरागदर्शनार्य दस प्रकार के हैं ।
[१७६] निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारूचि, संक्षेपरुचि, और धर्मरुचि ।
_[१७७] जो व्यक्ति स्वमति से जीवादि नव तत्त्वों को तथ्य रूप से जान कर उन पर रुचि करता है, वह निसर्ग रुचि ।
[१७८] जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों पर स्वयमेव चार प्रकार से श्रद्धान् करता है, तथा वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना ।
[१७९] जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन किसी दूसरे के द्वारा उपदिष्ट इन्हीं पदार्थों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेशरुचि जानना ।
[१८०] जो हेतु को नहीं जानता हुआ; केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह आज्ञारुचि है ।
[१८१] जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ श्रुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है, उसे सूत्ररुचि जानना ।
[१८२] जल में पड़ा तेल के, बिन्दु के फैलने के समान जिसके लिए सूत्र का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल जाता है, उसे बीजरुचि समझना ।
[१८३] जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध कर लिया है, वह अभिगमरुचि ।।
[१८४] जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों से उपलब्ध कर लिया, उसे विस्ताररुचि समझना ।
[१८५] दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में, सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रियाभावरुचि वाला है, वह क्रियारुचि है ।
[१८६] जिसने किसी कुदर्शन का अभिग्रहण नहीं किया है, और जो अर्हत्प्रणीत प्रवचन में पटु नहीं है, उसे संक्षेपरुचि समझना ।
[१८७] जो व्यक्ति जिनोक्त अस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है, उसे धर्मरुचि समझना ।।
[१८८] परमार्थ संस्तव, सुदृष्टपरमार्थ सेवा, व्यापन्नकुदर्शनवर्जना तथा सम्यग् श्रद्धा । यही सम्यग्दर्शन है ।