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जीवाजीवाभिगम-१०/६/३९१
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| प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-६ । [३९१] जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक
और अकायिक । इनकी संचिट्ठणा और अंतर पहले कहे जा चुके हैं । अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अपकायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे अकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं ।
[३९२] अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य । कृष्णलेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है | नीललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है । कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है । तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है । पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है । शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। अलेश्य जीव सादि-अपयंवसित है ।
कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का है । इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना । तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का यही अन्तर है । अलेश्य का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे अलेश्य अनंतगुण, उनसे कापोतलेश्या वाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेभा वाले विशेषाधिक हैं।
| प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-७ | ३९३] जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है । अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है । मति-अज्ञानी तीन प्रकार के हैं-१. अनादि-अपर्यवसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-मपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन