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जीवाजीवाभिगम-३/द्वीप./२९४
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से अधिक लम्बे-चौड़े, धरणितल में १०००० योजन लम्बे-चौड़े हैं । इसके बाद एक-एक प्रदेश कम होते-होते ऊपरी भाग में १००० योजन लम्बे-चौड़े हैं । इनकी परिधि मूल में ३१६२३ योजन से कुछ अधिक, धरणितल में ३१६२३ योजन से कुछ कम और शिखर में ३१६२ योजन से कुछ अधिक है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, अतः गोपुच्छ के आकार के हैं । ये सर्वात्मना अंजनरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रत्येक पर्वत पद्मववेदिका और वनखण्ड से वेष्टित हैं । उन अंजनपर्वतों में से प्रत्येक पर बहुत सम
और रमणीय भूमिभाग है । वह भूमिभाग मृदंग के मढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् वहां बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां निवास करते हैं यावत् अपने पुण्य-फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं । उन समरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग सिद्धायतन हैं, जो १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७२ योजन ऊँचे हैं, आदि वर्णन जानना ।
उन प्रत्येक सिद्धायतनों की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं; देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार और सुपर्णद्वार । उनमें महर्द्धिक चार देव रहते हैं; देव, असुर, नाग और सुपर्ण । वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और उतने ही प्रमाण के प्रवेश वाले हैं । ये सब द्वार सफेद हैं, कनकमय इनके शिखर हैं आदि वनमाला पर्यन्त विजयद्वार के समान जानना । उन द्वारों की चारों दिशाओं में चार मुखमंडप हैं । वे एक सौ योजन विस्तारवाले, पचास योजन चौड़े
और सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं । उन मुखमंडप की चारों (तीनों) दिशाओं में चार (तीन) द्वार कहे गये हैं । वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और आठ योजन प्रवेश वाले हैं आदि । इसी तरह प्रेक्षागृहमंडपों के विषय में भी जानना । विशेषता यह है कि बहुमध्यभाग में प्रेक्षागृहमंडपों के अखाड़े, मणिपीठिका आठ योजन प्रमाण, परिवार रहित सिंहासन यावत् मालाएं, स्तूप आदि कहना चाहिए । विशेषता यह है कि वे सोलह योजन से कुछ अधिक प्रमाण वाले और कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं । शेष उसी तरह जिनप्रतिमा पर्यन्त वर्णन करना । चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष हैं । उनका प्रमाण विजया राजधानी के चैत्यवृक्षों समान है । विशेषता यह है कि मणिपीठिका सोलह योजन प्रमाण है।
उन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएं हैं जो आठ योजन चौड़ी, चार योजन मोटी हैं । उन पर चौसठ योजन ऊँची, एक योजन गहरी, एक योजन चौड़ी महेन्द्रध्वजा है । शेष पूर्ववत् । इसी तरह चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । विशेषता यह है कि वे इक्षुरस से भरी हुई हैं । उनकी लम्बाई सौ योजन, चौड़ाई पचास योजन और गहराई पचास योजन है । उन सद्धियतनों में पूर्व और पश्चिम में १६-१६ हजार तथा दक्षिण में और उत्तर में ८-८ हजार मनोगुलिकाएं हैं और इतनी ही गोमानुषी हैं । उसी तरह उल्लोक और भूमिभाग को जानना । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर देवच्छंदक हैं जो सोलह योजन लम्बेचौड़े, कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं, सर्वरत्नमय हैं । इन देवच्छंदकों में १०८ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं हैं । जिनका सब वर्णन वैमानिक की विजया राजधानी के सिद्धायतनों के समान है ।
उनमें जो पूर्वदिसा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं । नंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना । ये एकलाख योजन की लम्बी-चौड़ी हैं, इनकी गहराई दस योजन की है । ये स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं । प्रत्येक के आसपास चारों ओर 79