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जीवाजीवाभिगम-३ / द्वीप./२८७
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श्रावक, श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहां तक मनुष्यलोक है ।
जहां तक समय, आवलिका, आन-प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौवर्ष, हजारवर्ष, लाखवर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से यावत् शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है, वहां तक मनुष्यलोक है । जहां तक बादर विद्युत और बादर स्तनित है, जहां तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, जहां तक बादर तेजस्काय है, जहां तक खान, नदियां और निधियां हैं, कुए, तालाब आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है । जहां तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य और कपिहसित आदि हैं, जहां तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि - हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति है, वहां तक मनुष्यलोक है ।
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[ २८८] भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्वविमानों में उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गतिशील और गति को प्राप्त हुए हैं ? गौतम ! वे देव ज्योतिष्क विमानों में ही उत्पन्न हुए हैं । वे गतिशील हैं, गति में उनकी रति है और वे गतिप्राप्त हैं । वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित हैं हजारों योजन प्रमाण उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं । वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादित्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल और कलकल ध्वनि करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरु की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं ।
भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पांच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर कार्यरत रहते हैं । भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक ।
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भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्वोपपन्न हैं, इत्यादि प्रश्न । गौतम ! वे देव विमानोपपन्नक ही हैं । वे स्थिर हैं, वे गतिरतिक नहीं हैं, गति प्राप्त नहीं हैं । वे पकी हुई ईंट के आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ वाद्यों, नृत्यों, गीतों और वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य बोगोपभोगों का अनुभव करते हैं । वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं है, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है । कूट की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं । इन चन्द्रों और सूर्यो आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित है । वे अपनी मिली-जुली प्रकाश किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं । भदंत ! जब इन देवों का इन्द्र यवित होता है तो वे देव क्या करते हैं ? गौतम ! यावत् चार-पांच सामानिक देव उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से कार्यरत रहते हैं । उस इन्द्र-स्थान का विरह काल जघन्य