Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

Previous | Next

Page 92
________________ वावाभिगम-३ / द्वीप./१७३ ९१ राजधानी के एक-एक द्वार पर सत्रह भौम हैं । उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता आदि विविध चित्रों से चित्रित हैं । उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन हैं । शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन हैं । इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं । ऐसा कहा है । [ १७४] उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच-पांच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड हैं, अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन । पूर्व में अशोकवन, दक्षिण में सप्तपर्णवन, पश्चिम में चंपकवन और उत्तर में आम्रवन है । वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं । वे प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं- इत्यादि यावत् वहाँ बहुत से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीडा करती हैं, कामक्रीडा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मो का कल्याणकारी फलविपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं । उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे साढे बासठ योजन ऊँचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं । ये चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों इत्यादि यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं । उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग हिंसासन हैं । यावत् सपरिवार सिंहासन जानने चाहिए | उन प्रासदावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रों पर छत्र । वहाँ चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थितिवाले हैं, अशोक, सप्तपर्ण. चंपक और आम्र । वे अपने-अपने वनखंड का अपने- अपने प्रासादावतंसक का, अपने- अपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनीअपनी पर्षदा का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं । विजय राजधानी के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह पांच वर्णों की यों से शोभित है । तृण-शब्दरहित मणियों का स्पर्श यावत् देव-देवियां वहाँ उठती- बैठती हैं यावत् पुराने कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन है जो बारह सौ योजन का लम्बा-चौड़ा और तीन हजार सात सौ पचानवे योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है । आधा कोस की उसकी मोटाई है । वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह उपकारिकालयन एक पद्मववेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है । यावत् यहाँ वानव्यन्तर देवदेवियां कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कंभ वाला और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य परिक्षेपवाला है। उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं । उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह मणियों से

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241