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जीवाजीवाभिगम - ३ / द्वीप./१७९
सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, यावत् सर्वोषधियों और सिद्धार्थकों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्सवपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं । वे सब अंजलि लगाकर कहते हैं - हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! आप नहीं जीते हुओं को जीतिये, जीते हुओं का पालन करिये, जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए । देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों ! बहुत से पल्योपम और सागरोपम तक यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत-से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञाऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें । ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं ।
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[१८०] तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है । फिर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा । तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड लाओ । तब विजयदेव ने सर्वप्रथमं रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंधकाषायिक अपने शरीर को पोंछा । सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया । श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े की लार से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, आकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य - युगल को धारण कि । एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कड़े, त्रुटित, अंगद, केयूर दसों अंगुलियों में अंगूठियाँ, कटिसूत्र, त्रि-अस्थिसूत्र, मुरखी, कंठमुरखी, प्रालंब कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत रत्नों से जड़ा हुआ मुकुटधारण किया । ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया । फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न को धारण किया । तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार से अलंकृत होकर सिंहासन से उठा और आलंकारिक सभा पूर्व के द्वार से निकलकर व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ और श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा ।
तदनन्तर उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरन लाकर उसे अर्पित करते हैं । तब वह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है । पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है । तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल कर नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतर कर हाथ-पांव धोता है और एक बड़ी श्वेत चांदी की