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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सिंहासनों की पूजा का कथन करना । हूद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए । व्यवसायसभा में पुस्तकरत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, यावत् अर्चन करता है । तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत् धूप देता है । शेष सब कथन पूर्ववत् करना ।
तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे देवानुप्रियो ! विजया राजधानी के श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, महापथों, और सामान्य पथों में, प्रासादों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चर्याओं में, द्वारों में, गोपुरों में, तोरणों में, बावडियों में, पुष्करिणीओं में, यावत् सरोवरों की पंक्तियों में, आरामों में, उद्यानों में, काननों में, वनों में, वनखण्डों में, वनराजियों में पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो । फिर वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ । तदनन्तर वह नन्दापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ-पांव धोकर, आचमन करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर नंदापुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मा सभा की ओर जाने का संकल्प करता है । तब वह विजयदेव सर्वऋद्धिपूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मा सभा के पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करता है तथा जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है ।
[१८१] तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर बैठते हैं । चार अग्रमहिषियाँ पूर्वदिशा में पहले से रखे हुए भद्रासनों पर बैठती हैं । उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव हुए भद्रासनों पर बैठते हैं । उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । इसी तरह पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति
और पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं । वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुप की पट्टिका को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, उन्होंने आयुधों और शस्को धारण कर रखा है, धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। कोई कोई के हाथों में धनुष, चारु, चर्म, दण्ड, तलवार, पाश और उक्त सब शस्त्रादि हैं । वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं उनके सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं ।
तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिपदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहुत-से देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वर-सेनाधिपतित्व करता हुआ और सब का पालन करता हुआ, जोर से बजाए हुए वाद्यों, नृत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, धन मृदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हआ रहता है । भन्ते ! विजय देव की आयु कितने समय की है ? गौतम ! एक पल्योपम की । हे भगवन् ! विजयदेव के