Book Title: Agam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Author(s): Devvachak, Jindasgani Mahattar, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 24
________________ अन्तः तओ य आगणातो छिण्णसंसारी भवति संसारसंततिं छेत्तुं मोक्खं पावतीति ॥ कल्पचूर्णी समाप्ता ॥ ग्रन्थाग्रम्-५३०० प्रत्यक्षरगणनया निर्णीतम् ॥ [सर्वग्रन्थाग्रम् - १४७८४ ॥ (९) कल्पविशेष चूर्णि - पविसेसचुगी समतेति ॥ (१०) व्यवहारचूर्णि । अन्तः व्यवहारस्य भगवतः अर्थविवक्षाप्रवर्तने दक्षम् । विवरणमिदं समा श्रमगगणानाममृतभूतम् ॥१॥ (११) निशीथ विशेषचूर्णि । आदि: नमिऊ रहंताणं, सिद्धाण य कम्मचक्कनुकाणं । सयणसिहविमुक्का सवसाहूग भावेण ॥१॥ सविसेसायरजुत्तं काउ पगामं च अत्थदायिस्स । पज्जुण्णवमासमणस्स चरण करणाणुपालस्स ॥२॥ एवं कयपणामी पकपणामस्स विवरणं वने । पुत्रायरियकथं चिय अहं पितं चेव उ विसेसे || ३ || भणिया विमुत्तिचूला अहुणाऽवसरो जिसीहचूलाए । को संबंधी तिस्सा भण्णइ, इगमो निसामेहि ||४|| तेरहवा उदेशके अन्तमें-' ? संकेर जड उडविभूसणस्स तणामसरिणामस्स । तस्स सुतेणेस कता विसेस चुनी मिसीहस्स || पंद्रहवा उद्देश अन्तमें— रैविकरमभिधाणकखरसत्तमवग्गंत अवरजुएणं । गामं जस्सित् सुते तिस्से कया चुण्णी ॥ सोलहवा उद्देशके अन्तमें देडो सीह थोरा य ततो जेट्ठा सहोयरा । कणिट्ठा देउलो गणो सत्तमो य तिइज्जिओ । एतेसि मज्झिमोजो उ मंत्री (मंदधी) तेण वित्तिता ( चिन्तिता) | अन्तः जो गाहा चेवंविधपागडो फुडपदस्थो । रइओ परिभासाए साहून अनुद्वा ॥ १ ॥ ति-च-प-मागे विपग-ति-निगक्खरा ठवे तेसिं । पढन नतिएहिं विदुः सरजुएहिं णामं कथं जस्स ||२|| गुरुदिण्णं च गणितं महत्तरतं च तस्स तुद्वेण । तेण कतेसा चुण्णी विसेसनामा निसीहस्स || ३ || भगवतीए । जिणदासगणिमहत्तरेण रइया मिसीहकुण्णी समत्ता ॥ (१२) पञ्चल्लचूर्णि । अन्तः पप भेओ पचिओ मोक्खसाहगाए । जं चरिऊग सुविहिया करेंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ पञ्चकल्पचूर्णिः समाप्ता ॥ ग्रन्थप्रमाणं सहस्रत्रयं शतमेकं पञ्चविंशत्युत्तरम् ३१२५ ॥ (१३) जीतकल्पह चूर्णी । अन्तः इति जेण जीदाणं साहूयारपंकपरिमुद्धिकरं । गाहाहिं फुडं रइयं महरपवत्थाहिं पावगं परमहियं ॥ १ ॥ १. इस गाथासे ज्ञात होता है कि चूर्णिकार श्रीजिनदासगणिमहत्तर के पिता का नाम नाग अथवा तो चन्द्र होगा । २. इस गाथाके अर्थका विचार करनेसे चूर्णिकार श्रीजिनदासगणि महत्तरकी माताका नाम प्राकृत गोवा संस्कृत गोपा अधिक संभवित है । ३. इस गाथामें उल्लिखित देइड आदि, चूर्णिकार श्रीजिनदासगणि महत्तरके सहोदर भाई हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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