Book Title: Agam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Author(s): Devvachak, Jindasgani Mahattar, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 118
________________ सुयणाणलाभ-सवण-वक्याणविहिमाइ] सिरिदेववायगविरइयं गंदीसुत्त । सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य णिखसेसो, एस विही होइ अगुओगे ॥ ८५॥ [आव० नि० गा० २१-२४ ] से तं अंगपविट्ठ । से तं सुयणाणं । से नं परोक्खणाणं । ॥से नं णंदी सम्मत्ता ॥ ११८. अक्वर० गाहा । एसा चोइसविहमुतभावपरूवणा कता ॥ ८१॥ एत्थं आयारादिगणधरागमपणीतस्स पत्तेगबुद्धभासितस्स वा तहाकालाणुभावतो बल-बुद्धि-मेधा-ऽऽयुहाणिं जाणिऊण जे य मुतभावा आयरिएहि निज्जूढा तेसु गहणविही दंसिज्जइ आगम० गाहा ।।८२॥ इमे ते अट्ठ बुद्धिगुणासुस्सूसति० गाहा ॥८३॥ विणेतस्स अत्थसवणे इमा विहीमूयं हुंकार० गाहा ॥८४॥ गुरुणो अणुयोगकहणे इमा विहीसुत्तत्थो खलु० गाहा ॥८५|| जंण भणितमृणं वा अतिरित्तं वा वि अहव विवरीतं । तं सम्मऽणुयोगधरा कहेंतु कातुं मम खंतिं ॥१॥ णि रेगमत्तण हसदा जि या पमपतिसंखगजट्रिताकला। कमद्विता धीमतचिंतियक्खरा, फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तुणो ॥ छ । शंकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रांतेषु अष्टनवतेषु नंद्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति ॥छ॥ छ । ग्रन्थानम् १५००।। १'गणधरपणीतस्स आ• दा० ॥ २ णिरेणगामेत्तमहासहाजिता पस्यती संखजगहिता अ॥ ३ सकराजतो पंचसु वर्षशतेषु नन्धध्ययन आ० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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