Book Title: Agam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Author(s): Devvachak, Jindasgani Mahattar, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 47
________________ जिणदासगणिमहत्तरविरइयाए चुण्णीए संजुयं [मु. ६-७ गा. ४२-४३ कहणं ति-अक्खेवमादियाहि कहाहिं धम्मकहणं । तत्थ कुद्धाण वि आगताणं तस्स वाणी वाणिं जणेति, किमंग पुण धम्मस्सवण?मागताणं ?। अहवा पाढो–“मुसवण" ति तत्थ सत्रण त्ति-कण्णा, तेस मुहं जणेइ त्ति सुस्सवणा, एवं हकारलोवातो भण्णति । अहवा मुस्मरणा सुहस्रवा इत्यर्थः। सेसं कंठं ॥४०॥ इमा वि दुस्सगगिणो चेव चलणथुती सुकुमाल० गाहा । पवयणं-दुवालसंगं गणिपिडगं जम्स अत्थि सो पावयणी, गुरवो त्ति कातुं बहुवयणं भणितं । सेसं कंठं ॥४१॥ एस णमोकारो आयरिययुगप्पहाणपुरिसाणं विसेसग्गहणातो कतो। इमा पुण [जे० १९१ प्र० सामण्णतो मुतविसिट्ठाण केज: जे अण्णे भगवंते कालियसुयआणुओगिए धीरे । ते पणमिऊण सिरसा णाणस्स पैरूवणं वोच्छ ॥ ४२ ॥ ॥ थेरावलिया मम्मत्ता ॥ जे अण्णे० गाहा । कंठा ॥४२॥ एतं च नाणपरूवणज्झयणं अरिहस्स देजति, णो अणरिहम्स देज्जइ । जतो भणितं [सुत्तं ६ ] सेलघण १ कुडग २ चालणि ३ परिपूणग ४ हंस ५ महिस ६ मेसे ७ य । मसग ८ जलूग ९ बिराली १० जाहग ११ गो १२ मेरि १३ आभीरे ॥४३॥ सा समासओ तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जाणिया १ अजाणिया २ दुब्बियड्ढा ३।" ६. सेलघण० गाहा । एत्थ अरिहा इमे कुडेमु-अप्पसत्यवम्मसारिच्छा, पसत्यभावितेसु य अवम्मसारिच्छा। तहा हंस-मेस-जलूग-जाहगसारिच्छा अरिहा, गो-भेरी-आभीरेसु य पसत्थोवणतोवणीता अरिहा । सेसा अणअरिहा ॥४३॥ इमस्स य नाणपरूवणज्झयणस्स परूवणे परिसा जाणिगाइ तिविहा जाणितया । तत्थ जाणियागुण-दोसविसेसण्ण अणभिम्गहिता य कुम्मुइ-मतेसु । सा खलु जाणगपरिसा गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा ॥१॥ कल्पभा. गा. ३६५ ] १ किजह दा०॥ २ वंदिऊण सं। बंदितूण P॥ ३ परूयणं खं०॥ ४ आमीरी सर्वास्वपि सूत्रप्रतिषु । एष एव पाठः श्रीहरिभद्र-मलयगिरिभ्यां व्याख्यातोऽस्ति ॥ ५ एनत्सूत्रानन्तरं जे. डे. मो० शुसं० मु० प्रतिषु चूर्णि-वृत्तिकृद्रिव्याख्यातोऽधिकोऽयं प्रक्षिप्तः सूत्राभासः पाठ उपलभ्यते-- जाणिमा जहा खीरमिव जहा हंसा जे घुटुंति इह गुरुगुणसमिद्धा । दोसे य विवज्जंती तं जाणसु जाणिय परिसं॥ अजाणिआ जहा जा होइ पगइमहुरा मियछावय-सीह-कुक्कुडगभूया । रयणमिव असंठविया अजाणिया सा भवे परिसा ॥ दुब्धियड्ढा जहा' न य कत्थइ निम्माओ न य पुच्छह परिभवस्स दोसेण । वत्थि व्व वायपुण्णो फुड गामेलयवियदो ॥ एतत्पाठविषये जेसू. प्रतावियं टिप्पणी केनापि विदुषा टिप्पिता दृश्यते-“जाणियेत्यारभ्य एतद् गाथात्रयं वृत्तौ न व्याख्यातम् , अतोऽन्यकर्तृक सम्भाव्यते ।" इति ॥ ६ आभीरीसु आ.॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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