Book Title: Agam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Author(s): Devvachak, Jindasgani Mahattar, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ केवलणाण-दसणोवओगवायत्थलं ] सिरिदेववायगविरइयं गंदीमुत्तं । २९ जहा छउमत्थस्स मति-सुता-ऽवधिणाणेसु अंतमुहुत्तकालोवयोगसंभवे उवयोगा-ऽणुवयोगेण य छावहिसागरा से ठितिकालो दिट्ठो, तहा जति जिणस्स णाण-दंसणा सादिअपज्जवसाणा उवयोगा-ऽणुवयोगेण भवंति तो को दोसो ? । जति एतं ते णाणुमतं तो इमं ते कहं अणुमतं भविस्सइ ? अह ण वि एतं तो सुण, जहेव खीणंतराइओ अरहा। संते वि अंतरायक्वयम्मि पंचप्पगारम्मि ॥ ७॥ सततं ण देइ [जे०१९८ द्वि० ] लभइ व भुंजइ उवभुंजई य सव्वण्णू । कज़म्मि देइ लभइ व भुंजइ व तहेव इहयं पि ॥ ८॥ किंच दितस्स लभंतस्स व भुंजंतस्स व जिणस्स एस गुणो । खीणंतराइयत्ते जं से विग्धं ण संभवति ॥१॥ उवउत्तस्से मेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिणस्स । खीणावरणगुणोऽयं, जं कसिणं मुणइ पासति वा ॥ १० ॥ [ विशेषण. गा. २०३-६ ] पुणो पर आह पासंतो वि न जाणइ, जाणं व ण पासती जति जिगिंदो । एवं ण कदाइ वि सो सव्वण्णू सव्वदरिसी य ॥११॥ उत्तरं आचार्य आह जुगवमजाणतो वि हु चतुहिं वि नाणेहिं जह चतुग्णाणी । भण्णइ, तहेव अरहा सव्वण्णू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥ पर एवाऽऽह तुल्ले उभयावरणक्खयम्मि पुव्वयरमुब्भवो कस्स। दुविधुवयोगाभावे जिणस्स जुगवं? ति चोदेति ॥ १३ ॥ उत्तरं आचार्य आह भण्णति, ण एस नियमो जुगवुप्पण्णेसु जुगवमेवेह । होयव्वं उवओगेण, एत्थ सुण ताव दिटुंतं ॥ १४ ॥ जह जुगवुप्पत्तीय वि सुत्ते सम्मत्त-मति-सुतादीणं । णत्थि जुगवोवयोगो सब्चेसु तहेव केवलिणो ॥ १५ ॥ किंच भणितं पि य पण्णत्ती- पण्णवगादीसु जह जिणो समयं । जं जाणती ण पासति तं अणुरतणप्पभादीणि ॥ १६ ॥ [ विशेषण. गा. २१५-२० ] १ पुर्व समुभवो आ० दा० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142