Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णतिका गणित
गा.२, २०५-रौरुक इन्द्रक में उत्कृष्ट आयु असंख्यात पूर्वकोटि दर्शाने के लिये ग्रंथकार ने प्रतीक निरूपण इस तरह की है: पुव । ।
गा. २, २०६- प्रथम पृथ्वी के शेष ९ पटलों में उत्कृष्ट आयु समान्तर श्रेदि में है, जिसका चय ( हानि वृद्धि प्रमाण) = १- है।
चतुर्थ पटल में आदि , पंचम पटल में 3, षष्ठम पटल में सागरोपम, इत्यादि ।
शेष वर्णन मूल में स्पष्ट है। यहां विशेषता यह है कि आयु की वृद्धि विवक्षित (arbitrary) पटलों में समान्तर श्रेटि में है।
इसी प्रकार गाथा २१८, २३० में दिया गया वर्णन स्पष्ट है।
गा.३.३२-चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार २५० योजन, तथा ऊंचाई मध्य में ४ योजन और अंत में अर्ध फोस प्रमाण है। इसे ग्रंथकर ने आकृति-२३ अके रूप में प्रस्तुत किया है।
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-२२०यो
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आकतिक २५० झाकृति:-अ.. रा का अर्थ स्पष्ट नहीं है।
का अर्थ ३ कोस।। २५० विस्तार अर्थात् २५० व्यासवाला वृत्त त्रिविमा रूप लेने पर (Taken as a tbree dimensional figure) होता है। ४, मध्य में उत्सेध है। इस प्रकार यह चित्र (आकृति-२३ब)नीचे एक रम्भ के रूप में है जिसकी ऊंचाई कोस है। उसके उपर ४ योजन ऊंचाईवाला शंक स्थित है। आकृति-२३ (स) से वर्णित वृक्ष का स्वाभाविक रूप स्पष्ट हो जाता है।
कार
२५०यो.
आहतररस' इन्द्र के परिवार देवों में से ७ अनीक ( सेनातुल्य देव ) भी होते हैं।
सात अनीकों में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है उनमें से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के बराबर है। इसके पश्चात् अंतिम कक्षा तक उत्तरोत्तर, प्रथम कक्षा से दूना दूना प्रमाण होता गया है।
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