Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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जंबूरीवपत्तिकी प्रस्तावना
होता
यह क्रिया एक बार करने से अन्योन्य गुणकार शलाका का प्रमाण एक होता है। जितने बार यह वर्गन सम्वर्गन की क्रिया की जावेगी उतनी ही अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण होगा। ग्रंथकार बतलाते हैं कि
पल्योपम . logz lo
है। यहाँ सम्भवतः असंख्यात का प्रमाण
असंख्यात Aam होना चाहिए।
यदि [GI]G1 = २' हो अथवा log [ (GI)Gl] = K हो तो K का प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण होता है । यहाँ न तो धन लोक का स्पष्टीकरण है और न लोक का ही।
इस तरह उत्पन्न राशि को भी असंख्यात लोक प्रमाण कहा गया है। इस महाराशि का वर्णन सम्वर्गन करने पर
OGl प्राप्त होता है। इस समय अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण
२ हो जाता है तथा राशि GI का वर्गन सम्बर्गन दो बार हो जाता है, इस प्रकार वर्णित रीति से Gl का वर्गन सम्बर्गन Gl बार करने पर मानलो L राशि उत्पन्न होती है । इस समय' अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण घन लोक बिन्दुओं की संख्या अथवा Gl के बराबर होता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह L राशि इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है।
इसके सिवाय log. log [L] मी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है। यदि L-२ हो तो K' भी असंख्यात लोक प्रमाण रहती है।
अब वर्ग सम्बर्गन की क्रिया L राशि को लेकर प्रारम्भ करेंगे। इस राशि का प्रथम बार वर्गन सम्बर्गन किया तब (L) राशि प्राप्त होती है तथा अन्योन्य गुणकार शलाकाओं की संख्या al+१ हो जाती है और ग्रंथकार कहते हैं कि (L)" उसकी वर्गशलाकायें तथा अईच्छेदशलाकाएँ तीनों ही राशियों इस समय भी असंख्यात लोक प्रमाण होती हैं। अब इस राशि का दूसरी बार वर्गन सम्वर्गन किया तो
आगे चलकर, ग्रंथकार ने तेजस्कायिक राशि का प्रमाण = किया है, जहां a का अर्थ असंख्यात हो सकता है। का प्रयोग = अथवा लोक के पश्चात् होना इस बात का सूचक है कि = अथवा घनलोक से, तेजस्कायिक जीव राशि को उत्पन्न किया गया है जो द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा से असंख्यात लोक प्रमाण बतलाई गई है। साथ ही असंख्यात लोक प्रमाण के लिये जो प्रतीक ९ दिया गया है वह ==a.से भिन्न है। यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि असंख्यात शब्द से केवल किसी विशिष्ट संख्या का निरूपण नहीं होता, परन्तु अवधिज्ञानी के ज्ञान में आनेवाली उत्कृष्ट संख्यात के ऊपर की संख्याओं का प्ररूपण होता है । ९, प्रतीक ९ अंक से लिया गया प्रतीत है, जहाँ ३ का धन ९ होता है। ३ विमाओं (उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम, तथा ऊर्व अधो भाग) में स्थित लोकाकाश जो जगश्रेणी के घन के तुल्य घनफलवाला है, ऐसे लोकाकाश को ९ लेना उपयुक्त प्रतीत होता है; पर, इस ९ प्रतीक को असंख्यात लोक प्रमाण गणात्मक संख्या का प्ररूपण करने के लिये उपयोग में लाया गया है।
१ ग्रंथकार ने यहाँ अन्योन्य गुणकार शलाकाओं का प्रमाण GI (घनलोक) न लेकर केवल लोक ही किया है जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ लोक और घनलोक में कोई अंतर नहीं है।
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