Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 380
________________ -११. २५.] एक्कारसमो उद्देसो [ २११ संखज्जविस्था किर संखेज्जा जोयणाण कोटीमो। जे होंति असंखेज्जा ते दु मसंखेज्जकोडीभो ॥ १५५ सिरिवछसंखसस्थियभरविंदयचक्कवटिया बहुया। समचउरंसा संसा अणेगसंठाणपरिणामो ॥ २४॥ पायारगोउरहालएहि वरतोरणेहिं चित्तेहि । वंदणमालाहि तह वरमंगलपुण्णकलसहि ॥ २४७ कंचणमणिरयणमया जिम्मलमलवज्जिदा रयणचित्ता । बहुपुप्फगंधपउरा विमाणवासा सपुण्णाणं ॥४८ भगल्यतुरुक्कचंदणगोसीससुगंधवासपडिपुणो । पवरच्छराहि भरियाँ भच्छेत्यरूवसाराहि ॥ २४९ वस्थ पम्मि विमाणे एरावर्णवाहणो दु बज्जधरो । इंदो महाणुभावो जुदीए सहिदो महड्डीमो ॥१५. बेसागरोवमाइं तस्स ठिदी तम्मि वरविमाणम्मि | भासुरवरबोंदिधरो परचन्भुदरूवसंठाणो ॥ २५॥ दोन्हं वाससहस्सा तस्स य माहाकारणं दिढे । उस्सासो णिस्सासो दोण्हं पुण तरथ पक्खाणं ॥ २५१ सत्तरदणी य गेयो उच्छेहो" तस्स सुरवारदस्स । सेसाणं पि सुराण सोहम्मे" होइ उस्छेहो ॥ २५॥ भट्टगुणमहिहीमो मुहविउरुम्वर्णविसेससंजुत्तो। समचठरंससुसंठिय संघदणेसु य असंघदणो ॥ २५. योजन तथा जो असंख्येय विस्तारवाले हैं वे असंख्यात करोड़ योजन विस्तृत है ।। २४५॥ बहुतसे विमान श्रीवृक्ष, शंख, स्वस्तिक, पद्म व चक्रके समान वर्तुलाकार तथा बहुतसे समचतुष्कोण व त्रिकोण अनेक आकारोमें परिणत हैं ॥२५६ ॥ उक्त विमान प्राकार, गोपुर, अद्यालयों, विचित्र उत्तम तोरणों, वन्दनमालाओं तथा मंगलकारक उत्तम पूर्णकलशोसे [ सुशोभित हैं ] ॥२४७॥ सुवर्ण, मणियों एवं रत्नौके परिणाम स्वरूप; निर्मल- मलसे रहित, रत्नोंसे विचित्र और बहुत पुष्पोंकी गन्धसे प्रचुर वे विमानालय पुण्यात्मा जोकि हैं ।। २४८।। उक्त विमान अगरु, तुरुष्क, चन्दन व गोशीर्ष रूप सुगन्धित द्रव्योंसे परिपूर्ण तथा आश्चर्यजनक सुन्दर रूपवाली श्रेष्ठ अप्सराओंसे व्याप्त हैं ।। २४९॥ वहां प्रभ नामक विमानमें ऐरावत वाहन (आभियोग्य ) देवसे संयुक्त, वज्रको धारण करनेवाला, महाप्रभावशाली तथा कान्तिसे सहित महर्थिक सौधर्म इन्द्र रहता है ॥२५० ॥ उस उत्तम विमानमें स्थित उसकी आयु दो सागरोपम प्रमाण है । वह इन्द्र भास्वर उत्तम रूपको धारण करनेवाला तथा अतिशय आश्चर्यकारक रूप व आकृतिसे संयुक्त है ॥२५१ ॥ उसके आहारकालका प्रमाण दो हजार वर्ष तपा उच्छ्वास-निश्वासका काल दो पक्ष प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है ॥ २५२ ॥ उस श्रेष्ठ सुरेन्द्रका उत्सेध सात रनि प्रमाण जानना चाहिये । सौधर्म स्वर्गमें स्थित शेष देवोंका भी उस्सेध सात रस्नि है ॥ २५॥ अणिमा-महिमा आदि आठ गुणों व महा-ऋद्धिस सहित, शुभ बिक्रियाविशेषसे संयुक्त, समचतुरन शरीरसंस्थानसे युक्त, [..] संहननोमें संहननसे रहित, आमिनिबोधिकज्ञानी, १ उश संहा परिणामा. १ क श तहि. १ क अगग. ४ उश गोसीरस. ५ उश परिपुषो, परिपुण्णो. ६७ श मरियो. ७. तपसाराहि, क रूपसोहाण, ब रूवसाराण, श नसाराणं. कब एरावद. . उ महिदीए, श महिदीय. १० उ श वेसागरोधमाए तस्सा. १७ श अहार. १५ उश गेया नागो, कया उदा. १५ उबश सोहम्मो. १४ क ब विगुरुवण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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