Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 422
________________ तेरसमो उदेसो [२५३ तस्स ब गुणगणकलिदो विदररहिदो तिसम्लपरिसुद्धो । तिणि वि गारवरहिदो सिस्सो सिद्धतगयपारी ॥ तपणियमजोगजुत्तो उजुत्तो णाणदसणचरिते । भारंभकरणरहिदो गामेण य पठमणदिति ॥ १६३ सिरिविजयगुरुसयासे सोऊणं भागमं सुपरिसुद्धं । मुणिपउमणदिणा खलु लिहियं एवं समासेण ॥ १६५ सम्मसणसुन्दो कनवदकम्मो सुसीलसंपण्णो । अणवस्यदाणसीलो जिणसासणवच्छलो वीरों' ॥ १६५ गाणागुणगणकलिमो गरवइसंपजिलो कलाकुसको । वारा-गबरस पहू णरुतमा सत्तिभूपालों ॥१६६ पोक्सरणिवाषिपउरे बहुभषणविहूसिए परमरम्मे । जाणाजणसंकिण्णे धणधण्णसमाउले दिवे ॥ १६० सम्माविटिजणोघे मुणिगणणिवहेहि मंडिए रम्मे । देसम्मि पारियसे निणभवणविहूसिए दिग्वे ॥ १६८ जंबूतीवस्स तहा पण्णती बहुपयस्थसंजुत्तं । लिहिय संखेवेण वाराएं अच्छमाणेण ॥ १६९ दुमरथेण विरयं जं कि विवेज्ज पवयणविरुद्धं । सोधंतु सुगीदत्या पक्ष्यणवच्छलताए । ॥१७. पुर्वगविलविरवं वस्थुवसाहाहि मंडियं परमं । पाहुस्साहाणिवह मणिमोयपलाससंछण्णा ॥. व कायकी दुष्प्रवृत्तिसे रहित; माया, मिथ्यात्व व निदान रूप तीन शल्योंसे परिशुद्ध; रस, ऋद्धि आर सात इन तीन गारवोंसे रहित सिद्धान्तके पारंगत; तप, नियम व समाधिस युक्त; ज्ञान, दर्शन व चारित्रमें उद्यक्त; और आरम्भ क्रियासे रहित पद्मनन्दि नामक मुनि (प्रस्तुत प्रन्थके रचयिता) हुए हैं ॥ १६२-१६३ ॥ श्री विजय गुरुके पासमें अतिशय विशुद्ध आगमको सुनकर मुनि पद्मनन्दिने इसको संक्षेपसे लिखा है ॥ १६४ ॥ सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, व्रत क्रियाको करनेवाला, उत्तम शीलसे सम्पन्न, निरन्तर दान देनेवाला, जिनशासनवरसल, वीर, अनेक गुणगोंसे कलित, नरपतियोंसे पूजित, कलाओंमें निपुण और मनुष्योंमें श्रेष्ठ ऐसा शक्ति भूपाल 'वारा' नगरका शासक या ॥१६५-१६६ ॥ प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, बहुत भवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, नाना जनोंसे संकीर्ण, धन-धान्यसे व्याप्त, दिव्य, सम्यग्दृष्टि जनोंके समूहसे सहित, मुनिगणसमूहोंसे मण्डित, रम्य और जिनभवनोंसे विभूषित ऐसे दिव्य पारियात्र देशके अन्तर्गत वारा नगरमें स्थित होकर मैंने अनेक विषयोंसे संयुक्त इस जम्बूद्वीपकी प्रज्ञप्तिको संक्षेपसे लिखा है ॥ १६७-१९९ ॥ मुझ जैसे अल्पज्ञके द्वारा रचे गय इसमें जो कुछ भी आगमविरुद्ध लिखा गया हो उसको विद्वान् मुनि प्रवचनवत्सलतासे शुद्ध करलें ॥ १७ ॥ अंग-पूर्व रूप विशाल विटपसे संयुक्त, वस्तुओं (उत्पादपूर्वादिके अन्तर्गत अधिकारविशेषों) रूप उपशाखाओंसे मण्डित, श्रेष्ठ, प्रामृतरूप शाखाओंके समूहसे सहित, अनुयोगों रूप पत्तोंसे व्याप्त, अभ्युदय रूप प्रचुर बतो . २ उश परितो । पव परिसर ४क रहयं. ५ कबीरा.पचारानयरस्स. क संतिभपाउसमा दिब्बो, समालो दिव्यो. नोपलभ्यते गायेयंकप्रतो. परियो. १. कपब एय. १२ उशबारए. कविचे. उशमुगीदत्वा तं पबयणवताए. १५अश पसारण. उशपाहण्यादाहिबई...श पानसभण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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