Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 400
________________ - ११.८६ ] बारसमो उदेसो [ २३१ विवाणि समुट्ठिा जोदिसयाणं समासदो गेया । एतो' जोदिसरासी समासदो संपवक्खामि ॥ ७६. जी yogता संखा रज्जुस्स दु छेदणाणे किंचूणा । विरहित्ता तेसु पुणेो चट चट दादूण" रूवेसु ॥ ७७ अष्णोष्णगुणेण तदो' रूरूणेण' य तिरूवभजिदेण । पोक्खरउवहीचंदे गुणिदेण य होदि मूलधणं ॥ ७८ उत्तरचणमवि एवं भणिज्जो चैव तेणं करणेण । णवरि विसेसो भो' रूवं पक्खिन्तु वलपसु ॥ ७९ रूवं पक्खिते पुण रिणरासि चटक्क सोलसादी यं । दुगुणा दुगुणों गच्छदि सयंभुरमणोदधी जाव ॥ ८० एवं पि माणिकणं पुग्युसविहाणकरणजोगेण । उत्तरघणम्मि मज्झे सोधित्ता सुद्धमवसेसं" ॥ ८१ मूळघणे पक्खिते सभ्ववणं तह य होदि णिहिद्वं । चंदाणं णायब्वा आइरुचाणं तु एमेव ॥ ८२ चदुकोडिजोयणेहि य अडदाला सदसहस्से भागेहिं । सेढी दु समुप्पण्णों दोसु वि पासेसु णायध्वा ॥ ८३ सा चैव होदि रज्जूँ चठसट्ठीलक्खजे। यणेहि पविभत्तौ । एवं होदूण ठिद रासीणं छेदणा जे दु ॥ ८४ ते गुलाणि किच्चा पुणरवि अण्णोष्णसंगुणे जादं । ओदिसगणा बिंबा णिद्दिट्ठा सम्बदरिसीहिं ॥ ८५ जो उप्पण्णो" रासी पंचसु ठाणेसु तह य काऊणं । सगसगगुणगारेहिं गुणिदम्बं तह पयत्तेण ॥ ८६ 1 बिम्ब जानने योग्य हैं। आगे संक्षेपमें ज्योतिषियोंकी राशिका कथन करते हैं ॥ ७६ ॥ राजुक अर्ध छेदोंकी जो पूर्वोक्त संख्या है, कुछ कम उसका विरलन करके तथा उन अंकों के ऊपर चार चार अंक देकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक अंक कम कर शेष तीनका भाग दे । इस प्रकारसे जो लब्ध हो उससे पुष्कर समुद्रके चन्द्रोंको गुणित करनेपर मूलधन प्राप्त होता है ।। ७७-७८ ॥ इसी प्रकार उसी करणके द्वारा उत्तरधनको मी ले आना चाहिये । विशेष इतना जानना चाहिये कि वलयोंमें एक अंकका प्रक्षेप किया जाता है ॥ ७९ || एक अंकका प्रक्षेप करनेपर फिर ऋणराशि चतुष्क व सोलह आदि स्वयम्भूरमण समुद्र तक दुगुणे दुगुणे क्रमसे जाती है ||८०|| इस प्रकार पूर्वोक्त विधानकरण के योगसे लाकर और उसे उत्तरधन के मध्य से कम करके शुद्धशेषको मूलधनमें मिला देनेपर चन्द्रोंका सर्वधन होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार ही सूर्य का भी सर्वधन जानना चाहिये ॥ ८१-८२॥ दोनों ही पार्श्व में चार करोड़ अड़तालीस लाख योजनोंसे विभक्त जगश्रेणि उत्पन्न जानना चाहिये ॥ ८३ ॥ वही चौंसठ लाख (४४८०००००) योजनोंसे विभक्त राजु होती है । ऐसा होकर स्थित राशियोंके जो अर्धच्छेद होते हैं उनके अंगुल करके फिरसे भी परस्पर गुणित करनेपर ज्योतिषी समूहों के बिम्बोंका प्रमाण होता है, ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।। ८४-८५ ॥ उक्त प्रकार से जो राशि उत्पन्न हुई है उसको पांच स्थानोंमें रख करके प्रयत्नपूर्वक अपने अपने १ उ एसे से, श एते. १ उब श जे. ३ उश छेदणा दु. ४ क दो दो दादूण. ५ क तहा, पब तहो. ६ प ब रूवणेण क तेण चैव. ८ क णेया. ९श पविखत्ति १० उ रा सोलसादीसु ११ क दुगुणडुगुण. १२ क एवं नियाणिदूणं. १३ प सुब्वअवसेसं, ब सव्वअव से सं. १४ उ रा दसस इस्स. १५ उश समप्पण्णा, क प व समुप्पण्णो. १६ उशते चैव होंति रज्जु १७ क प ब जोगणविभता. १८ प ब दिट्ठा. १९ द्विदा सीर्ण केदनाओ, २० श जोदिसगणाणि २१ क प व जे उप्पण्णा. २२ क गुणगारेहि य गुणिदव्वं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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