Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 415
________________ २५६) जंबूदीवपण्णती भदिसयवयणेहि जुदो मागधश्रद्धेहि दिवघोसेहि । तस्स दु स्वं दटुं मेत्तीभावो दु जीवाणं ॥ १०२ जस्थच्छह जिणणाहो होदि पुणो तत्थ विउलवणसंडो। सच्चरिदूर्षि समग्गो णाणाफल कुसुमसंपण्णी ॥१.३ दप्पणतलसमपट्टा रयणमई होदि दिम्चवरभूमी । जहिं जहि विहरइ गाहो परमाणदो दुजीवाणं ॥१०४ वादो वि मंदमंदो सुगंधगंधुधुरेण गंधेण । फेडतो वहइ पुणो तणकंडयसक्करादीणि ॥ १.५ जोयणमेत्तपमाणे गंधोदगवुद्धि णिवडइ खिदीए । इंदस्त दु आणाए देवेहि विउग्विया संता॥१०६ वरपउमरायकेसरमउलसुखप्फासकणर्यदलणिचयं । पायण्णासे कमलं पुर-पच्छे" सत्त ते होति ॥ १०७ फलभारणमियंसालीजवादिबहुसारसस्सधिदरोम । हरिसिद इव परधरणी पसंती जिणवरविभूदि ॥ १०८ सरए जिम्मलसलिलं सर इव गयणं तु भादि रयरहिद । छदुइदिसतिमिरादी पहुदि तहा जिम्हभावं च ॥ कंचणमणिपरिणामो भारसहस्सेहि संजुदो दियो । बरधम्मचक्क पुरदो गच्छह देवोद परियरिभो ॥ ११० ॥ १००-१०१ ॥ जिन भगवान् दिव्य घोषवाले अर्धमागधी रूप अतिशयवचनों दिव्यध्वनि) से युक्त होते हैं (१), उनके रूपको देखकर जीवों में मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है (२) ॥ १०२ ॥ जिनेन्द्र देव जहां स्थित होते हैं वहांका विशाल बनखण्ड छह ऋतुओंसे परिपूर्ण होकर नाना फल-फूलोंसे सम्पन्न होता है (३) ॥ १०३ ॥ वहां की दिव्य उत्तम रत्नमय भूमि दर्पणतलके समान पृष्ठवाली हो जाती है (४)। जहां जहां जिनेन्द्र भगवान् विहार करते हैं वहां जीवोंको परमानन्द प्राप्त होता है (५)॥१०४ || वहां सुगन्ध गन्धसे उत्कट ऐसे गन्धसे संयुक्त मंद-मंद वायु भी तृण-कण्टकों व कंवडाको नष्ट करती हुई वहने लगती है (६) ॥१०५॥ एक योजन प्रमाण पृथिवीपर इन्द्रकी आज्ञासे देवों द्वारा विक्रयासे निर्मित गन्धोदककी वृष्टि गिरती है (७) ॥ १०६ ॥ भगवान्के विहार समय पादन्यास करने उत्तम पनाग मणिमय केसरसे युक्त, मृदुल व सुखकर स्पर्शवाले तथा सुवर्णमय पत्रसमूहसे संयुक्त ऐसे कमलकी रचना होती है। वे कमल आगे पीछे सात होते हैं (८) ॥ १०७ ॥ फलभारसे झुकी हुई शाली धान्य व जौ आदि रूप श्रेष्ठ बहुत शस्यरूपी रोमांचको धारण करनेवाली उत्तम पृथिवी मानों हर्षित होकर जिनेन्द्रकी विभूतिको ही देख रही है (९) ॥ १०८ ॥ तालाबमें निर्मल जल और आकाश तालाब के समान रजसे रहित होकर शोभायमान होता है (१०-११), छह और दो अर्थात् आठों दिशायें अन्धकार आदिसे रहित हो जाती हैं तथा जीवों में कुटिल भाव नहीं रहता १२ (१) ॥१०९॥ सुवर्ण एवं मणियोंके परिणाम रूप एवं हजार आरोसे संयुक्त दिव्य उत्तम धर्मचक्र देवोंसे वेष्टित होकर आगे चलता है (१३) १प व अदिसयहिं जुदो मागधदिवेहि घोसेहिं. २ क प ब दिव्व होइ वरभूमी. ३ क पब पउल. ४५ सुक्खसकणय, ब सुक्खकसकणय. ५ क पुरिपिठे, पब दुरपिठे. ६ श नविया. ७ पब जावदि.८ उश विदिरोम, कपब धिदिरोमं. ९पब रइरहिद. १. उशच्छदुइदिसतिमिरादी,क छहइदिसतिमिरादि, पब छडइदिसितिमिरीदी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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