Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ -१३. १०१ तेरसमो उदेसी 1२४५ चंदो वसहो' कमलो भठ्ठत्तर तह सहस्स णामधरो । जो गुणणामसमग्गो सो देवो णस्थि संदेहो ॥ ९२ गम्भावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे । केवलणाणुप्पण्णे परिणिम्वाणम्मि समयम्मि ॥ ९३ पंचसु ठाणेसु जिणो पंचमहाणामपत्तकल्लाणों" । महदाइडिसमुदए सुरिंदईदेहि परिमहिभो ॥ ९४ सेवमलरहिददेहो गोखीरसमाणवण्णवररुहिरो । वरवइरसुसंघदणो समचउरसरीरसंठाणो ॥ ९५ भविसयस्वेण जुदो णवपर्यसुरहिगंधवरदेहो । भट्टसयलक्खणधरो मतबलविरियसंपण्णो'२ ॥ ९६ पियहियमहुरपळावो सभावदसमदिसएहि संजुत्तो । सो सम्वण्हू होहिदि णिहिट्ठो भागमपमाणे"॥ गाउय तह सयचउरो सुभिक्खणिरुवो "इवह देसो जहि जाहि विहरह अरहो तहिं तहिं होइ णायबो॥ गगणेण पुणो पुच्चइ अकालमिच्चू तहेव परिहीणो । उवसग्गभुत्तिरहिदो सध्वाभिमुहो जिणो होइ ॥ ९९ तह सम्बविज्जसामी छाही देहस्सतह य परिहीणो। मच्छिणिमेसविरहियो महलोमावहिणिवणोर८ ॥१.. घादिक्लयजादेहि य दसभेवहि भदिसएहि जुदो। एवं जो संजादो सो देवो" तिहुयणक्खादो ॥१.१ सार्थक नामोंसे समप्र है वह देव होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८९-९२॥ जो जिन देव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमण, केवल ज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्माणसमय, इन पांच स्थानों (कालों) में पांच महाकल्याणकोको प्राप्त होकर महा ऋद्धियुक्त सुरेन्द्र-इन्द्रोंसे पूजित है तथा स्वेद व मलसे रहित देहका धारक (१-२), गायके दूधके समान वर्णवाले (धवल) उत्तम रुधिरसे संयुक्त (३), उत्तम वज्रर्षभनाराचसंहननसे सहित (४), समचतुरनशरीरसंस्थानसे संयुक्त (५), अतिशय (अनुपम ) रूपसे युक्त (६), नव चम्पकके सदृश सुरभि गन्धसे परिपूर्ण उत्तम देहका धारक (७), एक सौ आठ लक्षणोंको धारण करनेवाला (८), अनन्त बल-वीर्यसे सम्पन्न (९); और प्रिय, हित एवं मधुर भाषण करनेवाला (१०); इस प्रकार इन दश जन्मातिशयॊसे संयुक्त है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार आगमप्रमाणमें निर्दिष्ट किया गया है ॥९३-९७॥ जहां जहां अरहंत भगवान् विहार करते हैं वहां वहाँ चार सौ कोश (एक सौ योजन) प्रमाण देश सुभिक्षसे संयुक्त होकर (१) उपद्रव (हिंसा) से रहित होता है (२) ॥९८।। जिन भगवान् अकाल मृत्युसे रहित होते हुए आकाशमार्गसे गमन करते हैं (३), तथा उपसर्ग व भोजनसे रहित होकर (४-५) सर्वाभिमुख (चतुर्मुख) रहते हैं (६) ॥९९॥ तथा वे सब विद्याओंके खामी (७), देहकी छायासे विहीन (८), अक्षिनिमेषसे विरहित (९) और नखें। व रोमोंकी वृद्धिके विनाशक होते हैं (१०)। इस प्रकार जो घातिया कोंके क्षयसे उत्पन्न हुए इन दश अतिशयोंसे युक्त होता है वह त्रिभुवन में 'देव' विख्यात है .................... उश विसभो. २ उ श अद्भुत्तर सह. ३ उ श कालो.४ उ श निखमणो, क प बणिक्खवणे. ५पब केवलणाणुप्पण्णो. ६ क जिणा, ब जिणे. ७ब कल्लाणे. ८ उ दूठिसमुदओ,श ठिसमुदओ.पब सुरंदईदेहि. १.उ सुसंघधणो, श सुसंपण्णो. ११क पब वरचंपय. १२ उ अणंतवरविरियसंप्पण्णो, श तवरविरियसंपुण्णो. १५ उश सभासंदेसअदिसएहि, प सभावदसअदिएहिं, ब सभावअदिएहि. १४क जो जुत्तो. १५ उ श सव्वण्र होइदि, क सव्वण्हू हो हवदि, प ससघण होहदि, ब ससट्ठाराद् होहदि, १६ उपबश पमाणो. १७ उश णिरवद्दिओ. १८उश लोमाचट्ठिनिट्ठवणो,ब लोमचठिणिठचणो. १९ उ प दसभेदेहि, क दसेहिं भेदेहिं, व दसभेहिं. २०श अदेसएहि. २१वो . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480