Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
तेरसमो उदेसो
[२१९ रातराव पाए गमयपदार्ण बोहनीवस्स । गमंतराव साइए हमाम बस १॥ मोगराव बीणे नसेसमोग उहदि णावया । उवमोगकम्म साइए वमोगं होई बीवस्स . विरिवंतराव बीण पर्णतविरिष हमे समुरिह । पयोषकाविडवो सो सम्वन संदेहो ॥ १५ बमरिंदणमियरको भटारससहस्ससीलरो। चुलसीदिसपसहसजिम्मगुणरमणसंपणो ॥१॥ बस्स वषर्ण पमाणं पदस्यगम हवेण सविडं । मोक्खामिकामिणा बलु धेच त परतणे ॥३० होनेपर उत्तम केवलदर्शन होता है ॥ १२ ॥ दानान्तरायके क्षीण होनेपर जीवके क्षायिक बमयदान और लाभान्तरायके क्षीण होनेपर उसके दुर्लम बायिक लाम होता है ॥१३॥ मोगान्तरायके क्षीण होनेपर जीवके समस्त क्षायिक मोग और उपमोगान्तराय कर्मके क्षीण होनेपर क्षायिक उपभोग होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १३४ ॥ वीर्यान्तरायके क्षीण होनेपर अनन्त वीर्य प्रगट होता है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है । जो उपर्युक्त इन नौ केवळलन्धियोंसे संयुक्त होता है यह सर्वज्ञ है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १३५ ।। जिसके चरणों में देवोंके इन्द्र नमस्कार करते हैं तथा जो अठारह हजार शीलका धारक एवं चौरासी लाख निर्मल गुण रूपी रस्नोंसे सम्पम है, उसका तत्वार्थविषयक वचन प्रमाण है। मोक्षामिलाषी जीवको उस (सर्वज्ञ) के द्वारा निर्दिष्ट पदार्थस्वरूपको प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥ १३६-१३७ ।।
विशेषार्थ-(१) प्रस्तुत गाथामें जो आप्तके अठारह हजार शीलों व चौरासी लाख गुणोंका निर्देश किया है उनमें अठारह हजार शीलोंकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है१ योग ( मन, वचन व कायकी शुभ प्रवृत्ति), ३ करण ( मन, वचन व कायकी अशुम प्रवृत्ति ), " संज्ञायें ( आहार, भय, मैथुन व परिग्रह ), ५ इन्द्रियां, १० काय ( स्थावर ६ व प्रस १ ) और १० धर्म ( उत्तमक्षमादि)। इन सबको परस्पर गुणित करनेसे उपर्युक्त संख्या प्राप्त होती है । यथा-३ x ३.४४४५४१०४ १० = १८००० । इनके उच्चारणका क्रम निम्न प्रकार है-(१) मनोगुप्त, मनःकरणविमुक्त, आहारसंज्ञाविरत स्पर्शनेन्द्रियवशंगत, पृथिवी संयमसंयुक्त और उत्तमक्षमाधारक; यह प्रथम शीलमेद हुआ। (२) वारगुप्त, मन:करणविमुक्त, आहारसंज्ञाविरत, स्पर्शनेन्द्रियवशंगत, पृथिवीसंयमसंयुक्त और उत्तमक्षमाधारक । इसी प्रकारसे आगेके ततीयादि भेदोंको भी समझना चाहिये।
(२) चौरासी लाख गुणोंकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है-हिंसादिक ५, कषाय १, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, पापक्रिया स्वरूप मंगुल ३ (मनोमंगुल, वाल्मंगुल व कायमंगुळ),
पवस्वालाम. . उ शकेवमिकविजुदो. १ उकश बहारसता सहस्स. . उप पदसास्सा.उपेटबाप्पयरोणपोत पयरोण, शत बप्पण.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org