Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 411
________________ २१२] जंबूदीवपण्णत्ती [ १३.६३ जो कम्मकलुसरहिमो सो देवो गस्थि एस्थ संदेहो । जस्स दु एवं बुद्धी भवायणाण हवे तस्स ॥३. रागहोसविरहिदसम्बर ण य कदावि विस्सरदि । एवं खलु जरस मदी धारणणाणं हवे तस्स ॥" जो दु भवग्गहणाणो सो दुवियप्पो जिणेहि पण्णत्तो । भस्थावगह पढमो तह वंजणवग्गही विविभो ॥६५ दूरेण यजं गहणं इंदियणोइंदिएहि अस्थिक्क' । अस्थावग्रहणाणं गायब्वं तं समासेण ॥६६ पासित्ता जं गहणं रसफरसणसहगंधविसएहि । वंजणधग्गहणाणं गिट्टि त वियाणाहि ॥ १७ मणचक्खूविसयाणं णिहिट्टा सवभाषदरिसीहिं । भस्थावग्गहबुद्धी णायचा होदि एक्का दु ॥ ६८ भवसेस इंदियाणं भवग्गहादीनि होति णिहिट्ठा । भट्ठावग्गहणाणं तहयग्गावंजणं चेव ॥ ६९ सम्वेदे मेलविदा अट्ठावीसा हवंति मदिभेदा । छच्चदुगुणिदेण तदो चदु पविखण ते होति ॥ ७० बहुबहुविहखिप्पेसु य मणिस्सरिद अणुत तह धुवरथसें । उग्गहईहादीया भेदा तह होति पुष्युत्ता ॥७१ एक्केक्कविहेसु तहा णीसरिदाखिप्पउत्तयधुवेसु । धारणवायादीयों होति पुणो तेसु णायम्वा ॥ ०२ जो कर्म-मलसे रहित होता है वह देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस प्रकार जिसके निश्चय रूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥ ६३ ॥ राग-द्वेष रहित सर्वज्ञ होता है, इस बातको जो कभी नहीं भूलता है उसके धारणाज्ञान होता है ।। ६१॥ इनमें जो अवग्रह झान है उसे जिनदेवने दो प्रकार कहा है- प्रथम अर्थावग्रह तथा द्वितीय व्यञ्जनावग्रह ॥६५॥ दूरसे ही जो चक्षुरादि इन्द्रियों तथा मनके द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है उसे संक्षपसे अर्यावमह ज्ञान जानना चाहिये ॥ ६६ ! छूकर जो [ वर्ण ], रस, स्पर्श, शब्द और गन्ध विषयका प्रहण होता है उसे व्यञ्जनावग्रह निर्दिष्ट किया गया जानो ॥ ६॥ सर्वज्ञोंके द्वारा निर्दिष्ट एक अर्यावग्रह ज्ञान ही मन और चक्षुके विषयमें होता है, ऐसा जानना चाहिये [ अभिप्राय यह कि व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार ही इन्द्रियोंसे होता है, किन्तु अर्थावग्रह चक्षु और मनके द्वारा भी होता है ] ॥ ६८॥ शेष इन्द्रियोंके अवग्रहादिक चारों निर्दिष्ट किये गये हैं । उनमें अवग्रह दो प्रकारका है- अर्थावग्रह व व्यञ्जनावग्रह ॥६९॥ इन सबको मिलानेपर मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। वे मेद छह (इन्द्रियां ५ व मन १ ) को चार ( अवमहादि ) से गुणा करने और उनमें चार जोड़ने ( ६ x ४ + १ = २८) से होते हैं ॥७०॥ वे पूर्वोक्त अवग्रह-ईहादिक भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त तथा ध्रुव, इन छह पदार्थोके विषयों होते हैं ।। ७१ ॥ तथा एक, एकविध, निःसृत, अक्षिप्र, उक्त और अध्रुव, इन छह पदायोंके विषयों धारणा व अवाय आदि ज्ञान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये उश अवायणणाणं. २ उश कदाचि. ३ पब अवग्गहणोणो.४श गहणं रमपरसणसरक्कं. १क बियाणेहिं. ६ उ अवगाहादोषिण, क प ब अवग्गहादी य. ७ उ अणुसरिद, क अणिसरिस, पब आणिसारिस. ८ उश धुवनेस, कप ब धुर्वतेस ९श पुणोव्वुत्ता. १.उधारणपायावीया, पब भारवायादीया, श पारणपण्यादिया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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