Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 409
________________ २४.] जंबूदीवपण्णत्ती [१३. १८ पच्चक्खो तह सयली पढमो विदिमो य वियलपच्चक्खो। सयको केवलणाण' मोहीमणपज्जवा वियला ।। १८ खानो एयमणतो तिकालसम्वत्थगहणसामत्थो । वाधारहिदो णिच्चो णिहिटो सयलपच्चक्खो' ॥ ४९ दम्वे वेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो | बहुविधभेदपभिष्णो सो होदि य वियरूपच्चक्खो ॥ ५० पुग्गलसीमेहि लिदो परचक्खो सप्पभेद अवधी दु । देसावधि परमावधि सम्वावधिएहि तिवियप्पा ॥ ५१ परमणगदाण अत्यं' मणेण अवधारिदूण भवबोधो । रिजुविपुलमदिवियप्पो मणपज्जवणाण पच्चक्खो ॥ ५२ विदिमो दु जो पमाणो तह चेव य होदि सो परोक्खो ति। दुविधो सो वि परोक्खो मदिसुदभेदेण णिहिट्ठा ॥ बुद्धिपरोक्खपमाणो बहुविहभेदेहि सो दु संभूदो। तस्स दु भेदवियप्पं किंचि समासेण घोच्छामि ॥ ५॥ उग्गहईहावायाधारणभेदेहि चदुविधो होइ । इंदियभेदेण पुणो अट्ठावीसा समुट्ठिा ॥ ५५ मभिमुहणियमियबोहण आमिणिबहियमणिदिइंदियजं | बहुयाहि उग्गहाहि य कय छत्तीसा तिसद भेदा ॥ द्वितीय विकल प्रत्यक्ष । इनमें सकल प्रत्यक्ष केवट ज्ञान और विकल प्रत्यक्ष अवधि व मनःपर्यय ज्ञान हैं ॥४७-४८॥ सकल प्रत्यक्ष क्षायिक, एक, अनन्त, त्रिकालवर्ती समस्त पदाथोंके ग्रहण करनेमें समर्थ, बाधारहित और नित्य निर्दिष्ट किया गया है ।। १९ ॥ जो ज्ञान द्रव्य क्षेत्र, काल और भावमें परिमित (परिमाणयुक्त) तथा बहुत प्रकारके भेद-प्रभेदोंसे युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है ॥ ५० ॥ अवधिज्ञान पुद्गलसीमाओंसे स्थित, अर्थात् रूपी द्रव्यको विषय करनेवाला, प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों की अपेक्षा न करके आत्ममात्रसापेक्ष और प्रभेदोंसे सहित है । मूलमें वह देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन तीन मेदोंसे संयुक्त है।। ५१ ॥ जो ज्ञान दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको मनसे निर्धारित करके जानता है वह प्रत्यक्ष स्वरूप मनःपर्यय ज्ञान कहा जाता है । इसके ऋजुमति व विपुलमति, इस प्रकार दो भेद हैं ॥५२॥ द्वितीय जो प्रमाण है वह 'परोक्ष' कहा जाता है। वह परोक्ष भी मति और श्रुतके भेदसे दो प्रकार कहा गया है ॥ ५३ ।। परोक्ष प्रमाण स्वरूप जो बोध है वह बहुत प्रकारके भेदोंसे संयुक्त है । संक्षेपसे उसके कुछ भेद-विकल्पोंका कयन करते हैं ॥५४ ।। इनमें मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, इन मैदोसे चार प्रकार है । पुनः इन्द्रियभेद (इन्द्रिय ५व अनिन्द्रिय १) से उसके अट्ठाईस भेद कहे गये हैं ॥ ५५॥ अभिमुख होकर नियमित रूपसे पदार्थको जो जाने वह आभिनियोधिक ( मतिज्ञान ) कहलाता है। यह इन्द्रियज और अनिन्द्रियज स्वरूपसे दो प्रकारका है । फिर उसके बहुआदिक एवं अवमहादिकी अपेक्षा तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥५६॥ विशेषार्थ- यहाँ " अभि- अर्थाभिमुखः, नि- नियतो नियतस्वरूपः, बोधो बोधविशेषोऽभिनिबोधः, अभिनिबोध एव अभिनिबोधिकम् " इस निरुक्तिके अनुसार आभिनिबोषिकज्ञानका स्वरूप यह बतलाया गया कि जो 'अभि' अर्थात् पदार्थके सन्मुख होकर 'नि' अर्थात् १ उश केवलणाणो. २ का सागत्यो. ३ उ श पुग्गलुसीमेहि. ४ उ श परमणगदाण भयो, पब परमाहगदंतु अत्यं. ५क परोपको शदियबहयादिउग्गहादियालीसा तीसदभेदा पद्धिा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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