Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 379
________________ २१.] जंजूदीवपण्णत्ती [११.२३६गोसीसमलयचंदणसुगंधगंधुद्धरेणं गंधेण । वासेदि व सुरलायं सा सग्गसिरी' विकंवती' ॥ २५॥ सक्को वि महड्डीमो महाणभागी महाजुदी धीरों'। भासुरवरबोंदिधरों" सम्माविट्ठी तिणाणीमो ॥ २१. सो कायपडिरचारों पुरिसो इर्वं पुरिसकारणिप्फण्णो । भुजदि उत्तमभोग देवीहि सम गुणसमिद्धं ॥ २१० बत्तीसं देविंदा (1) तायत्तीसा य उत्तिमा पुरिसा । चुळसीदि च सहस्सा देवा सामाणिया तस्स ॥ २३९ भट्ट व पणटुसोया तामो भइरूवसारसोहाभो" | भागवरमहिसियामो भग्छेरयपेञ्छणिज्जामो ॥ २४. मणियाणं सत्तण्ह य परिसाणं सामिलो सुरवरिंदो । चुलसीदिं च सहस्सा (1) परिसाए भादरक्खाण ॥ संणबदकवयों उप्पीलियसारपष्टियामझौं । बहुविहउज्जयहस्था सूरसमस्था य मायरक्सो य ॥ २४२ पत्तारितोयवालाण तथं जमवरुणसाममादीणं । सामित्तं भहित करेदि काल असोज्जी ॥४॥ . संखज्जविस्थाणि य असंखपरिमाणविस्थाणि च । दिम्वविमाणाणि तहिं कोरिसहस्साणि बहुवाणि" ॥ रूप तथा सुगन्धित मालासे सदा व्याप्त रहनेवाली वह समा स्वर्गश्रीको तिरस्कृत करती हुई सुगन्ध गन्धसे उत्कट गन्धके द्वारा स्वर्गलोकको सुवासित करती है ॥२३५-२३६॥ महाविभूतिसे संयुक्त, महाप्रभावसे सहित, महाकान्तिका धारक, धीर, भास्वर उत्तम रूपको धारण करनेवाला, सम्यग्दृष्टि, तीन ( मति, श्रुत व अवधि ) ज्ञानोंसे युक्त, पुरुषके समान कायप्रवीचारसे सहित तथा पौरुषसे निष्पन्न वह सौधर्म इन्द्र भी देवियोंके साय गुणोंसे समृद्ध उत्तम भोगको भोगता है ॥२३७-२३८॥ उक्त इन्द्रके बत्तीस देवेन्द्र, त्रायस्त्रिंश, चौरासी हजार सामानिक देव ये उत्तम पुरुष हैं; तथा शोकसे रहित, अन्त्यन्त श्रेष्ठ रूपसे सुशोभित एवं आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय ऐसी उत्तम भाठ अप्रमहिषियां होती हैं ॥२३९-२४०॥ उक्त सुरेन्द्र सात अनीकों, अभ्यन्तरादि परिषदोंमें बैठने योग्य चौरासी [१२+१४+१६] हजार पारिषद देवों तथा [३३६०००] आत्मरक्ष देवोंका स्वामी है ॥२११॥ युद्धके लिये उद्यत होकर कवचको व मध्यमें सारपट्टिकाको कसकर बांधे हुए तथा बहुत प्रकार उपम युक्त हायोंवाले ये आत्मरक्षक देव शूरोंमें समर्थ होते हैं ॥२४२॥ वह सौधर्म इन्द्र वहाँ यम वरुण और सोमादि ( सोम व कुबेर ) चार लोकपालोंके स्वामित्व व भर्तृत्वको असंख्येय काल तक करता है ॥ २४३ ॥ उपर्युक्त दिव्य विमान संख्यात योजन विस्तारवाले व असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। उनमें हजारों करोड़ योजन (असंख्येय) विस्तारवाले विमान बात ( अपनी संख्याके ६ भाग ) हैं ॥ २४४ ॥ संख्येय विस्तारवाले विमान संख्यात करोड़ क सुगंधगंधुददेण, व सुगंधगंध देण. २ उ सुरोए सामग्नसिरि, श सुरलेएं सामग्नसिरि. ३ क विलंबेती.४ उश दीरो. ५ ब वेदिधरो. उश सम्मदिहि, ब समादिट्ठी. ७ब पाडिचारो. ८उ परिसं पिव, शपुरिसं पुन. ९क उत्तिम. १.ब उत्तमा. "उश सोयस्स तस्स हरूवसोइसाराओ, बसोया ताउ आइरूवसारसोहोउ. १२ ब सहस्सा देवा सामाणिया तस्स ( अतोऽये प्रतावस्या २४..४१ तमं गापादयं पुनर्लिबितमस्ति, तत्र 'सहस्सा परिसाय आदरखाणं' एवंविध एवं पाठः). १३ उश कवय. १४ उ सारपटियामा, शसारमटियायम्म. १५कब भाबरक्ला. उश लोयपाला तत्थ. १७ उश मदि. १८ डश असंच. "कबहुगानि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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