Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 395
________________ २२२] जंबूदीवपणची [१२. ११तीसं च सहस्सा भट्टेव सदा हर्वति पदुसट्ठा । सोदसमुश्वरम्मि दुरूस्खे लक्से व चदुरषिया ॥१॥ वेत्तरि' सहस्सा सत्तेव सदा हवंति भरवीसा । गंदीसरम्मि दीये तेणेव कमेण ते चंदा ॥ ३१ एवं कमेण चंदा दीवसमुसु होति णिहिट्ठा । वहंता वढुंता ताव गया जावे लोयंत ॥ ३३ भाइचाण वि एवं दीवसमुहाण तह ये वलएसु । परिवड्डी गायब्वा समासदो होइ निरिट्ठा ।" वारागहरिक्साणं एसेव कमेण ताण परिवडी । णवरि विसेसो जाणे गुणगारा होति भण्णण्णां ॥३. . एदेसि चंदाणं मसंखदीवोदधीसु जादाणं । सम्वाण मेलवर्ण कहेमि संखवदो ताणं ॥ ३९ बत्तीसा खलु वळया पोक्सारउवहिम्मि हॉति णायचा। वलयाए वलयाए चदुरहिया हॉति ससिविंबा ॥३. वारुणिदीवे गेया वलया चउसटि होति णिदिट्टा । भट्ठावीसा य सया वारुणिउवाहिस्स विष्णेयों ॥१८ खीरबरणामदी बेचेव सया हवंति उप्पण्णा | वलयाण तह य संखा णिहिट्ठा सम्वदरिसीहिं॥३९ भवसेससमुदाणं दुगुणा दीवाण तह हवे दुगुणा । एवं दुगुणा दुगुणा ताव गया जाव लोगतं ॥१. पडमवकएसु चंदा सायरदीचाण तह य सम्वाणं । मूलधणेत्ति य सण्णा विदुपियासिदा था।" जे वडिदा दु चंदा वलए वलए हवंति णिहिट्ठा । ते उत्तरधणसण्णा उभभो पुण होइ सम्बधणं ॥ ४२ प्रथम क्लयमें छत्तीस हजार आठ सौ चौंसठ (8) चन्द्र हैं । इसके आगे लाख लाख योजनपर वे चार चार अधिक है ॥ ३१ ॥ उसी क्रमसे नन्दीश्वर द्वीपमें तिहत्तर हजार सात सौ अट्ठाईस (8) चन्द्र हैं ॥ ३२ ॥ इस क्रमसे निर्दिष्ट वे चन्द्र द्वीप-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर बढ़ते बढ़ते लोक पर्यन्त चले गये हैं ॥३३ ॥ इसी प्रकार द्वीपों तथा समुद्रोंके वलयों में संक्षेपसे निर्दिष्ट की गई सूर्योकी मी वृद्धि जानना चाहिये ॥ ३४ ॥ इसी क्रमसे उन ताराओं, ग्रहों और नक्षत्रोंकी भी वृद्धि हुई है। विशेष इतना जानना चाहिये कि यहां गुणकार भिन्न भिन्न हैं ॥ ३५॥ असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें स्थित इन सब चन्द्रोंके सम्मिलित प्रमाणको संक्षेपसे कहते हैं ॥ ३६॥ पुष्कर समुद्रमें बत्तीस वलय जानना चाहिये । प्रत्येक वलयमें चार चार चन्द्रबिम्ब अधिक होते गये हैं ॥ ३७॥ वारुणी द्वीपमें चौसठ वलय निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये । तथा वारुणी समुद्रमें एक सौ अट्ठाईस वलय जानना चाहिये ॥ ३८॥ तथा क्षीरवर नामक द्वीपमें स्थित वलयोंकी संख्या सर्वदर्शियों द्वारा दो सौ छप्पन निर्दिष्ट की गई है ॥ ३९ ॥ शेष समुद्रोंके दुगुणे तथा शेष द्वीपोंके भी दुगुणे वलय हैं । इस प्रकार वे वलय लोक पर्यन्त दुगुणे दुगुणे होते गये हैं ॥१०॥ सब समुद्रों तथा द्वीपोंके प्रथम वलयोंमें स्थित चन्द्रों की संख्याकी 'मूलधन' यह संज्ञा विद्वानों द्वारा प्रकाशित की गई जानना चाहिये ॥४१॥ वलय वलयमें जो चन्द्रोंकी वृद्धि निर्दिष्ट की गई है उसकी • उत्तरधन ' और इन दोनोंकी ' सर्वधन ' संज्ञा है ॥ १२ ॥ एक सौ चवालीस, उश सपुरतडम्मि. २ श एवांकटिं. ३ उपब ताम. ४ उपब जाम. ५ उश दीवसमुराणि वह निराश भण्णेण्णा, क अण्णोण्णा, पब अण्णण. . पविणेया. “श सण्णा वि विहुसेहि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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