Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 388
________________ - ११. ३३४ ] एक्कारसमो उद्देसो [ २१९ एवं ते देववरा बरहारविहूसियो महासत्ता । माललि देचवलकुंडले सच्छेदविडंग्वणाभरणों ॥ ३२४ बहुविविहसाहविरइयदिग्व विमाणोह चित्तसाहाणि । ताणि विमाणवराई' अच्छे रयपेच्छणिज्जाणि ॥ ३२५ सुकयतव सीलसंचयँ विजयसमाधी ये धम्मसीकाणं । वररदणसमुब्भूद ते मावासा सपुष्णाणं ॥ ३२६ उत्तरलोयडुवदी" अट्ठावीसं तु सयसहस्साणं । सामी ईसानिँदो रदणविमाणाण दिव्वाणं ॥ ३२७ तो उढं गंतुं जोयणकोडी असंखेज्जा । ताहे सणक्कुमारे कप्पे रुजगंजणं णाम ॥ ३२८ णामेण मंजणं नाम तत्थ मणिकणय रयणवेयडियं" । वणमाकं वह नागं गरुलं में मनोवमसिरीयं ॥ ३२९ वरमणिविभूसिदं च पियदंसणं च विश्वादं । बलभद्दं तह छटुं । चक्कं च भणोवमसिरीयं ॥ ३३० होइ अरिद्वविमाणं विमलं तह देवसम्मिदं" चेव । एदे चत्तालीस इंदयपडला मुणेयब्वा ॥ ३३१ बं बंतर" बंभतिलय तह कंतवं च काविट्ठ । सुक्कं च सहस्सारं णादम्बं आणदं चैव ॥ ३३२ पाणदपडलंच तहा पुप्फुसेर सामरं च पण्णासं । आारणकप्पं च वहा मच्युदकप्पं च णादं ॥ ३३३ हेट्ठिमगेवेज्जान य मादीसु सुदंसणं अमोघं च । तह चैव सुप्पबुद्धं तदियं पडलं मुणेयध्वं ॥ ३३४. ॥ ३२३ ॥ इस प्रकार वे श्रेष्ठ देव उत्तम हारसे विभूषित महाबलवान्, सुन्दर व चंचल कुण्डलों से अलंकृत तथा इच्छानुसार विक्रिया एवं आभरणोंको धारण करनेवाले हैं ॥ ३२४ ॥ विविध प्रकारके बहुत से प्रासादोंकी रचनासे सहित, दिव्य विमान समूहकी विचित्र शोभासे सम्पन्न, तथा आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय वे उत्तम विमान भले प्रकार किये गये तप व शीलके संचय सहित विनय एवं धार्मिक स्वभाववाले पुण्यवान् जीवोंके निवास रूप होते हैं । वे आवास उत्तम रत्नोंसे उत्पन्न हुए हैं || ३२५-३२६ ॥ उत्तरलेोकार्धका अधिपति ईशानेन्द्र अट्ठाईस लाख रत्नमय दिव्य विमानोंका स्वामी है ॥ ३२७ ॥ प्रभ पटलसे असंख्यात करोड़ योजन ऊपर जाकर तब सनत्कुमार कल्प में रुचकजिन ( ! ) है | वहां मणियों, सुवर्ण एवं रत्नोंसे खचित अंजन नामक पटल, वनमाल, तथा नाग, अनुपम शोभावाला गरुड, उत्तम मणियोंसे विभूषित प्रसिद्ध प्रियदर्शन [ लांगल ], छठा बलभद्र, अनुपम शोभासे सम्पन्न चक्र पटल, अरिष्ट विमान, तथा विमल देवसम्मित ( सुरसमिति ), ये चालीस इन्द्रक पटल जानना चाहिये || ३२८-३३१॥ इसके ऊपर ब्रम्ह, ब्रम्होत्तर, ब्रम्ह तिलक ( ब्रम्हहृदय ), लांतर, कापिष्ठ (!), शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत पटल, तथा पुष्पोत्तर ( पुष्पक ), पचासव सागर ( शातंकर - शातक ), आरण कल्प तथा अभ्युत कल्प जानना चाहिये ॥ ३३२-३३३ ॥ अधस्तन मैवेयकोंके आदिमें सुदर्शन, अमोघ तथा तृतीय सुप्रबुद्ध पटल जानना चाहिये ॥ ३३४ ॥ मध्यम मैत्रेयकों में क्रम से १ क वरहा विभूसिया. २ उ रा आलुलिय. ३ प ब बवळकुडल ४ क सद विष्वणाभरणा, प ब सदावेव्वणाभवणा. ५ उश ताण विमाणविराई ६ उश पेच्छाणिजाहि. ७ प संचया, ब संवय ८ विजयसाधीय, पविणयासमाधाय ९ उश समम्भूदा १० क लोयट्टवदी, प ब लोयठवदी, श लोए टवदी. ११ के सत्यमणिरयणकणयवेयडियं. १२ उ रा ववणमालं तवणागं गरुलं व क ब वणमालं तह नागं गरुलं च. १३ उ तह छ, के तह प व तह द्वे. १४ क देव संसद, १५ उ रा वंभुवंभुत्तरं, क बंं बभ्रुतरं, प बंभ बंयुत्तर, व वंभे वंभुचर. १६ उ रा वह पुप्फसर. १७ ज श णादन्ना. १८ क सुणायम्वं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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