Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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प्रस्तावना
१ खगोल विषयक जैन ग्रंथ प्राचीन भारतने इस विश्व को कैसा जाना माना है, यह विषय बड़ा रोचक एवं अध्यापनकी एक स्वतंत्र शाखा ही है। प्रारंभमें विद्वानों द्वारा इस विषय का जो कुछ अनुसंधान किया गया है ( उदाहरणार्थ, देखिये 'डब्ल्यू. किरफेल 'कृत जर्मन भाषा का ग्रंथ 'डइ कॉस्मोग्राफी डेर इंडेर' लीपजिग १९२०, पृ. २०८-३४०) उससे सुस्पष्ट है कि भारतीय लोक-विज्ञान में जैन आचार्यों द्वारा किया गया चिन्तन भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । इस विषय की जैन रचनायें अनेक दृष्टियोंसे रुचिकर पाई जाती हैं। उनमें लोकका आकार प्रकार संबंधी विवरण बड़े विस्तारसे, बड़ी सुसंगतिसे एवं बड़ी कल्पना के साथ किया गया है। इस विवरण का जैन तत्त्वज्ञान व चारित्र संबंधी नियमोंके साथ भी घनिष्ट संबंध है। तथा समस्त जैन साहित्य और विशेषतः उसका कथात्मक भाग, इस लोक-ज्ञान संबंधी विवरणोंसे इतना ओतप्रोत है कि वह, विना उक्त विषयके विशेष ग्रंथोंका सहारा लिये, स्पष्टतः समझा नहीं जा सकता। उनकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि उनमें अपने रचनाकाल के गणितज्ञान का भी खूब समावेश पाया जाता है। इस प्रकार नाना देशों और युगों में मानवीय ज्ञान के विकास का इतिहास समझने के लिये ये लोकविज्ञान विषयक जैन ग्रंथ बड़े रोचक हैं।
अर्धमागधी श्रुताङ्ग के भीतर कुछ रचनायें ऐसी हैं जिनमें इस विषयका वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार हैं:
(१) सूरपण्णत्ति ( सं. सूर्य-प्राप्ति, मलयगिरि की टीका सहित प्रकाशित, आगमोदय समिति,
सूरत, १९१९) .. (२) जम्बुद्दीवपण्णत्ति ( सं. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शान्त्याचार्य की टीका सहित प्रकाशित, देवचन्द
__ लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ५२ और ५४, बम्बई, १९२०) (३) चंदपण्णत्ति ( सं. चन्द्रप्रशप्ति)
श्रुतांगोंके उत्तर कालीन अन्य जैन ग्रंथों में भी इस विषयका बहुत विवरण मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक आदि टीकाओंमें यह वर्णन खूब आया है। इस विषयके अन्य ग्रंथ हैं:
(१) उमास्वातिकृत जम्बूद्वीपसमास (विजयसिंहकृत टीका सहित प्रकाशित, अहमदाबाद १९२२) (२) जिनभद्रकृत संघायणी (मलयगिरिकृत टीका सहित प्रकाशित, भावनगर सं. १९७३) . (३) बृहत्क्षेत्रसमास ( मलयगिरिकृत येका सहित प्रकाशित, भावनगर सं. १९७७) (४) हरिभद्रकृत जम्बुद्दीव-संघायणी ( भावनगर १९१५ ). आदि ।
इन ग्रंथोंका उल्लेख डब्ल्यू. शुबिंग कृत 'डइ लेहरे डेर जैनाज़' (लीपजिंग १९३५ पृ. २१६) में पाया जाता है।
, श्रुतांग-संकलनसे पूर्वकालीन जैन ग्रंथों की एक अन्य भी परम्परा है । इसी परम्परा का एक ग्रंथ 'तिलोयपणत्ति' दो भागों में प्रस्तुत ग्रंथमाला में ही प्रकाशित हो चुका है ( शोलापुर, १९४३, १९५१ )।
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