Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 371
________________ २०२] जंबूदीवपण्णत्ती [११. १६३वसमहिरपूयमझे तडतडफुटुंत सब्बसंधीसु । पीलिज्जति अधण्णा जंतसहस्सेहि घेत्तणं ॥ १६३ लंबंतचम्मपोटो अण्णे धावंति तुरियवेगेण । पेच्छंति गिरिवरिंदा तस्थ गिलुक्कंति झाडेहि ॥ १६४ दरिविवरेसु पइट्ठा तस्थ वि खजति वग्धसिंघेहिं । सप्पेहि घोणसेहि य खज्जति हु वज्जतुंडेहि ॥ १६५ कंदरविवरदरीसु वि सिलाण विच्चेसु तेसु पविसति । तत्थ वि य धगधगतो* सहसा उहाविओ अग्गी ॥ सुमरेदि पुव्वकम्मं गुलुगुलु गज्जति भीमसहेण । कालसिला उप्पाहेति उप्पयंता अधण्णाणं ॥ १६७ घाईता जीवाणं शिययं खायंति" तह य मंसाणि । सासिज्जंति" यधण्णाचाराणे णरयपालेहिं ॥ १६८ संडासेहिं य जीहा उप्पाडिति तह रसंताणं । छिंदंति हत्थपादो कण्णाहरणासियादीणि ॥ १६९ फाति आरडेतों मोग्गरछुरियापहारघाएहिं । असिवत्तवणेहि तहा पावंति" महंतदुस्वाणि ॥ १७० बीच समस्त सन्धियोंमें तड़-तड़ टूटते हुए ग्रहण करके हजारों यंत्रोंके द्वारा पेरे जाते हैं ॥ १६३ ॥ जिनके पैटका चमड़ा लटक रहा है ऐसे अन्य नारकी बड़े वेगसे दौड़कर महान् पर्वतोंको देखते हैं और वहां झाड़ोंमें छिप जाते हैं ॥ १६४ ॥ कितने ही नारकी गुफाओंके भीतर प्रविष्ट होकर वहां भी वाघों और सिंहोंके द्वारा खाये हैं, तथा कितने ही वनके समान कठोर मुखवाले सर्पो व घोनसों ( विशेष जातिके सों) के द्वारा खाये जाते हैं ॥ १६५ ॥ कितने ही नारकी उन कन्दराओं व गुफाओंके भीतर भी शिलाओंके मध्यमें प्रविष्ट होते हैं । वहांपर भी सहसा धग्-धग करती हुई अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ॥ १६६ ॥ वे पूर्वकृत कर्मका स्मरण करते हैं और हाथीके समान भयंकर शब्दसे गुल-गुल गर्जना करते हुए कूदकर पापी नारकियोंके लिये कालशिलाओंको उखाड़ते हैं ॥ १६७ ॥ तथा जीवोंका घात करनेवाले उन दुराचरी नारकियोंको स्वकीय मांस खिलाकर अम्बावरीष जातिके असुरकुमारों द्वारा शिक्षित ( दण्डित ) किया जाता है ॥ १६८ ॥ उक्त देवोंके द्वारा चिल्लाते हुए उन नारकियोंकी जीभ संसियोंसे उखाड़ी जाती हैं तथा हाथ, पैर, कान, अधरोष्ठ एवं नासिका आदि अंग-उपांग छेदे जाते हैं ॥ १६९ ॥ रोते हुए वे नारकी जीव मुद्गर एवं छुरीके प्रहारों व अभिघातों द्वारा फाड़े जाते हैं तथा असिपत्रवनोंके द्वारा महान् दुःखोंको प्राप्त होते हैं। १ उ कुछंति, श कुदंति. २ उ लवणत्तचम्मपोड्दा, क लंबंतिचम्मपोहा, ब लंवतचम्मयोह, श लवमतचम्मपोटा. ३ ब तुरयवेगेण. ४ श निलुक्कंतु. ५ उ धाडेहि, क साडेहि, ब काडेहि, श पाडेहि६ उ वम्बसिंम्वहि, व सिंघवाहिश वग्वसिषेहि. ७ उश तिस्थ वि य धगधगितो, तस्थ वियपग धगंता. ८ उ श सारोवि पुत्रवाम्मे, क सुमरेवि पुवकम्म, ब सुमरेवि पुन्वकम्मे. ९ उ श उपाउंति, क आडेति, ब उपाडिति. १० उ गिययं खयंति, क गिअयं खायंति, ब णिश्चयं खायंति, श णियं स्वयंति, ११ उ सो सेज्जति, क सासिज्जंति, ब सासज्जति, श सो सिजति. १२ उ श अधणाचाराणं, ब यधण्यावाराणं. १३ उश संहासेही य जीया उप्याडिति. १४श रसंसाणं. १५ उशतस्थपादा, ब तत्थपाद १६ उश फाति अरता, ब फाइंति आरइंता. १७ उश असपत्तवणेहिं तहा पावंत. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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