Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 372
________________ -११. १७७ ] एक्कारसमो उद्देसो [२०३ हुववहजालापहदा डझता वि प्पियं पलोयंता । पविसंति तत्थ सहसो असिपत्तवणं महाघोरं ॥ १७१. छिंदंति य भिदंति य उवरि पडतेहिं पत्तखग्गेहिं । वेकंडिया व जंति वायवसा पडियपत्तेहि ॥ १७२ गलसंखलासु बद्धा संछुन्भंति य तत्तचुल्लीहिं । तत्तकवलिसु अण्णे पच्चंतिय सिमिसिमंतेण ।। १७३ अच्छोडे प्पिणु अण्णे संबलिरुक्खम्मि कंटयाइण्णे । कट्टिजंति" रसंता मंसवसारुहिरविच्छड्डा ॥ १७४ छिंदंति य करवत्ते बंधेप्पिणु संखलाहि खंभेसु । कपिज्जति रसंता करंगुलीयाओ चस्केहि ॥ १७५ एवं छिंदणभिंदणताडणदहदहणदंडभेऔ य । पावंति वेयणाओ रयणाइतमतमं जाम ॥ १७६ सत्त वि फरुसाओ" कक्कसघोराओ दुक्खबहुलाओ। णाम पि ताण घेत्तुं | सक्कए कहे पुणो वसिडें ॥ ॥ १७० ॥ उक्त नारकी जीव आगकी ज्वालाओंसे आहत होकर जलते हुए भी प्रिय समझ कर सहसा वहां महा भयानक असिपत्रवनमें प्रविष्ट होते हैं । १७१ ॥ वहांपर वे ऊपर गिरते हुए पत्तों रूपी खगोंके द्वारा छेदे-भेदे जाते हैं। वायुके वश ऊपर गिरे हुए पत्तोंसे वे रुंड (छिन्नसिर) के समान जाते हैं ॥ १७२ ॥ वे नारकी गलेकी सांकलोंमें बांधे जाकर गरम चूल्हेमें फेंके जाते हैं तथा दूसरे नारकी तपे हुए कड़ाहोंमें सिम-सिम• शब्द पूर्वक पकाये जाते हैं ॥ १७३ ।। अन्य नारकी कण्टकोंसे व्याप्त सेमर वृक्षके ऊपर पटके जाकर रोते हुए मांस, वसा एवं रुधिरके विस्तारसे संयुक्त होकर काटे जाते हैं ॥ १७४ । उक्त नारकी खम्भोंमें सांकलोंसे बांधे जाकर करपत्र ( आरी) के द्वारा छेदे जाते हैं तथा रोते हुए उनके हाथोंकी अंगुलियां चक्रों द्वारा काटी जाती है ॥ १७५ ॥ इस प्रकार रत्नप्रभासे लेकर तमस्तमा पृथिवी पर्यन्त वे नारकी जीव छेदना, भेदना, ताडन करना, तपाना व आगमें जलाना आदि दण्डविशेषोंको प्राप्त होकर वेदनाओंको प्राप्त करते हैं ॥ १७६ ॥ उक्त सातों पृथिवियां कठोर स्पर्शसे संयुक्त, कर्कष, भयानक और प्रचुर दुःखोंसे व्याप्त हैं। उनका नाम लेना भी जब शक्य नहीं है तब भला उनमें रहना कैसे शक्य होगा? ॥ १७७ ॥ उन रत्नप्रभादिक १ब बहुवह. २ उ तत्थ सहरसा, क तत्तु सहसा, व तत्थ सहस्सा, श तत्थ तहसा. ३ उ उपर पडतेहि पत्तरखग्नेहि, श उपर पतिहि पत्तक्खमेहि.४ उशवेरंडियावजंतिवयवसा (श जंति यवसा)पडिवत्तेहि, क ब वेरुंठिया (ब वेरहिया ) य जंती वायवसा पडियपत्तेहिं. ५ क तत्थ, ब तच्च. ६ उ श तत्तकवल्लीसु अणे, क तत्तकवलिसु अवणे, ब तत्थ कवल्लिसु अण्णो. ७ उ श सिमिसिमंतेण, क मिसिमिसिंतेण, ब सिमसिमंतेण. ८ क सेंवलि. ९ उ श कंटयाइल्ले, ब कट्टकाण्णे. १० उ कड्ढि जंति, क कट्टिजंति, बकप्पिति, श कटिजति. ११ क मंसावसरुहिरविछड्डा, ब मंसावसरुहिरविछद्दा. १२ क संकलाहिं. १३ उश कप्पजति. १४ उ करंगुलियाउ चक्केहि, ब करंगुलीयाउ चक्केहि,श कारंकुलियाउ चक्केहि.१५ उ ताडणदहदहण्णदहदहणदंडभेया,श तादुणदहददण्णदुहदणदंणभेया.१६ श यावंति वेयणाओ तमत्तमं जाम,कव पावंति वेदणाओणेरइया तमतमा जाव. १७ उ खरपरमाओ, ब खरफरूंसाड, श खरयरमाओ १८ उ वित्तु, क ब घेतू, श वितुं. १९ उ श तह. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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