Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 337
________________ १९८] जंबूदीवपण्णत्ती [ ९. १४५ पुग्वेण तदो गंतुं होह गदी उम्मिमालिणी णाम | विदिया विभंगैसरिया दो णामा होति सम्वाणं ॥ १४५ वेरुलियवेदिणिवहा विद्दमवरतारणेहि संजुत्ता । मणिमयसोवाणजुदा सुगंधसलिलेहि संपुण्णा ॥ १४६ वणसंडेहि य सहिया भट्ठावीसासहस्सणइजुत्ता। दक्षिणमुद्देण गंतुं सीदोदजलं विसह सरिया ॥ ११७ वरतोरणदाराणं देहलियाणं तलेण पविसंति। सम्वाओ सरियामो गायब्वा होवि णिदिवा ॥११८ पुग्वेण तदो गंतुं गंधिलणामो त्ति जणवदो होइ । वरगंधसलिलपटरों" जवगोहुममुग्गसंपण्णो ॥ १४९ वरगामणयरपट्टणमडंबदोणामुहि संच्छण्णो । संबाहखेडकब्बडरयणायरमंडिनो दिम्वो ॥ १५० रिसमगिरिरुप्पपवदरत्तारत्तोदएहि रमणीमो । कमलुप्पलछण्णेहि य वावीदीहीहि कयसोहो ॥ १५॥ देसस्स तस्स दिट्ठा होदि यज्म ति णामदो णयरी | अज्जुणपायारजुदा पवालमणितोरणदुवारा ॥ ९५२ ससिसूरकतमरगयपवालवरपउमरायघरणिवहा । फलिहमणिकणयविदुमजिणभवणविहूसिया दिवा ॥ १५३ पुष्वेण वदो गंतु णामेण य देवपव्वदो होइ । ससिकतवेदिणिवही पवालवरतोरणुत्तुंगो ॥ १५॥ मत्तकरिकुंभसरिसो चउसिहरविहूसिमो मणभिरामो। तुंगजिणभवणणिवही बहुभवणसमाउलो रम्मो ॥ १५५ है । इसका दूसरा नाम विभंगा सरित् है । इन सब नदियोंके दो नाम होते हैं॥११५॥ उक्त नदी वैडूर्य मणिमय वेदीसमूहसे सहित, विद्रुममय उत्तम तोरणोंसे संयुक्त, मणिमय सोपानोंसे युक्त, सुगन्ध जलसे सम्पूर्ण, वनखण्डोंसे सहित और अट्ठाईस हजार नदियोंसे युक्त होती हुई दक्षिणकी ओर जाकर सीतादाके जलमें प्रवेश करती हैं ॥ १४६-१४७ ॥ सब नदियां उत्तम तोरणद्वारोंकी देहलियोंके तलसे प्रवेश करती हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥ १८ ॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर गन्धिला नामक देश है । यह देश उत्तम गन्धयुक्त प्रचुर जलसे परिपूर्ण; जौ, गेहूं एवं मूंगसे सम्पूर्ण; उत्तम प्रामों, नगरों, पट्टनों, मटंबों व द्रोणमुखोंसे व्याप्त; संबाहों, खेडों, कर्बटों एवं रत्नाकरोंसे मण्डित; दिव्य, ऋषमगिरि व रूपाचल पर्वतों एवं रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे रमणीय, तथा कमलों व उत्पलोंसे व्याप्त ऐसी वापियों एवं दीर्घिकाओंसे शोभायमान है ॥ १४९-१५१ ।। उस देशकी राजधानी अयोध्या नामक नगरी निर्दिष्ट की गई है। यह दिव्य नगरी रजतमय प्राकारसे युक्त, प्रवाल मणिमय तोरणद्वारोंते सहित; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, मरकत प्रवाल एवं उत्तम पद्मराग मणियोंके गृहसमूहसे सहित तथा स्फटिक मणि, सुवर्ण एवं विद्रुममय जिनमवसे विभूषित है ॥१५२-१५३॥ उससे पूर्वकी ओर जाकर देव (देवमाल) नामका पर्वत है। यह पर्वत चन्द्रकान्त मणिमय वेदीसमूहसे सहित, प्रवालमय उत्तम उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, मत्त हाथीके कुम्भके सदृश, चार शिखरोंसे विभूषित, मनको अमिराम, उनत जिनभवनोंके समूहसे सहित, बहुत भवनोंसे व्याप्त, रम्य, नाना वृक्षसमूहोंसे गहन, बहुत गाथेयं नोपलभ्यते बप्रतौ। २ उ श विमंग. ३ ब जुदा. ४ उ श पविसइ. ५ ब पविसंता. ब णायव्वो. ७ ब वरगंधसलिलपउरो, श वरगंधसाधिपवरो. ८ उश संपण्णा. १ ब सोहि. १० बणामेण य एव्वदो. "ब तोरणातुंगो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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