Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 363
________________ १९४] जंबूदीवपण्णत्ती साहस्सिया दु मच्छा सयंभुरमणोदधिम्हि बोद्धव्वा । एमेव झसवराणं उक्कस्स होइ उच्चत्तं ॥ ९३. पत्तेयरसा चत्तारि सायरी तिण्णि होति उदयरसा । अवसेसा य समुद्दा बोद्धव्वा होति खोदरसा ॥ ९४, लवणो वारुणितोओ खीरवरो घयवरों" य पत्तेया। कालो पोक्खरउदधी सयंभुरमणो य उदयरसा ॥ ९५ जा दक्खिगदीवंते णीलादो दक्खिणे गदा रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं वंसे अहव वंसरै' ॥ ९६ णिसधगिरिस्सुत्तरदो बेसदतेवहि जोयणसदेसु । भागे च तिण्णि गंतुं सौ गंठी होइ देवकुरु ॥ ९७ मंदरतलमज्झादो भरहंता जा गदा हवे रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं वंसे अहव वंसधरे ॥ ९८ सत्तावणं च सदा अहसहस्सा कला य सत्तरसा । णिसहगिरिस्सत्तरदो ओगाहिय सा हवे गंठी ॥ ९९ मंदरतलमज्झादो सयंभुरमणम्मि जा गया रज्जू । तिस्से मज्झे गंठी किं दीवे अहव उदधीए ।। १०० अभंतरम्मि भागे सयंभुरमणोदयस्त दीवस्स । पण्णत्तरि य सहस्सा ओगाहिय सा हवे गंठी ।। १०१ समुद्रमें एक हजार योजन [ दीर्घ ] मत्स्य जानना चाहिये । यही महामत्स्योंकी उत्कृष्ट उंचाई है ॥ ९२-९३ ॥ चार समुद्र प्रत्येकरस अर्थात् अपने अपने नामके अनुसार रसवाले, तीन समुद्र जलके समान रसवाले, और शेष समुद्र क्षोदरस ( ऊखके समान रसवाले ) जानना चाहिये ।। ९४ ॥ लवण, वारुणीवर, क्षीरवर और घृतवर, ये चार समुद्र प्रत्येकरस तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयम्भुरमण, ये तीन समुद्र उदकरस हैं ।। ९५ ॥ नील पर्वतसे दक्षिणकी ओर दक्षिण द्वीपान्तमें जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित ग्रन्थि [ अर्धच्छेद ] क्या वर्षमें है अथवा वर्षधर में है ? ॥ ९६ ॥ निषध पर्वतके उत्तरमें दो सौ तिरेसठ योजन व तीन भाग जाकर वह प्रन्थि देवकुरु [ में पड़ती] है ।। ९७ ॥ मन्दरतलके मध्य भागसे भरतक्षेत्र पर्यन्त जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित प्रन्थि क्या वर्षमें है अथवा वर्षधरमें है ? ॥ ९८ ॥ वह प्रन्थि निषध पर्वतके उत्तरमें आठ हजार एक सौ सत्तावन योजन और सत्तरह कला अवगाहन करके स्थित है ॥ ९९ ॥ मन्दरतलके मध्य भागसे स्वयम्भुरमण समुद्र में जो रज्जु गई है उसके मध्यमें स्थित प्रन्थि क्या द्वीपमें है अथवा समुद्र में है ? ।। १०० ॥ वह प्रन्थि स्वयम्भुरमण समुद्रके अभ्यन्तर भागमें एक हजार पचत्तर योजन द्वीपका अवगाहन करके स्थित है ॥ १०१ ।। मन्दरतलके मध्य भागसे लोकके अन्त तक १उ शरमगोदधीहि, बरमणोदधीहि. २ ब एमेव सवराणं ३ उ श उक्कसं. ४ उश सवाए.५श सोदरसा. ६ उ श तेओ. ७ उ धयवरो, श धवरो. ८ उ दीवंतेसु नीलवंतादु दक्षिणागदा रहू, क दीवंतं णीलादो दक्खिणे गया रज्जू, ब दीवंते सीलवंता दु दक्षिणा रज्जू , श दीवंतेसु नीलवण्णा दक्खिणोगदा र . ९ उश तिसे, ब तस्से. १० क गंठे. ११ क अधव वसधरे, ब अधव वसंधरा, श अहव वसंघरो. १२ उश गिरीसत्तरदो. १३ उ श च तदो गंतुं सो. १४ श गंटी किं वंसे देवकुरू. १५ उ श वंसवरे, १६ उ श संयंभुरमणोदधी गया रज्जू, व स्वयंभुरवणादधी गया रज्जू. १७ उश तिसे, कब तस्से. १८ क अन्भंतरिमा भागा, ब अकंतरिमा भागो, श अभंतरम्नि विभागे१९ उश उग्गाहिय, ब उग्गाहिया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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