Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 368
________________ -११. १४४ ] एक्कारसमो उसो [ १९९ चउदस चेव सहस्सा भूदाणं होंति अधियलोयहिं । सोलस चेव सहस्सा रक्खसदेवाण विष्णेया ॥ १३६ पदमादियउक्कस्तं बिदियादिय साधियं हवे जहणणं तु । घम्माये भवणविंतर वाससहस्सा दस जहण्णा ॥ १३७ असुरसु सागरोत्रम तिपल्ल पल्लं च गागभोमाण । अब्दादिज्ज सुवण्णा दु दीव सेर्सो दिवड्ढं च ॥ १३८ पणुवीसं असुराणं सेसकुमाराण दसधणू चेव । त्रिंतरजोइसियाणं दस सत्त धंणू मुणेयव्वा ॥ १३९ पणुवीस जोयणाणं ओही वितरकुमारखग्गागं । संखेज्जजोयणाणि दु जोइसियाणं जहण्णोही ॥ १४० असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोइसगणाणं । संखातीदसहस्सा उक्कस्सो अधिविसओ दु ॥ १४१ अप्पबहुलहिं भागे पढमाए खिदीऐ होंति गिरया दु । वज्जिताण सहस्सं " उवरिमतल हेडिमतलादो ॥ १४२ तसंच सय सहस्सा पणुवीसा तह य होइ पण्णरसा । दस तिष्णि सदसहस्सा एगं पंचूणयं पंच ॥ १४३ एसा दुरियसंखारयणादीया कमेण पत्रिभत्तो । संवग्गेण दु गिरया चदुरासीदिं च सदसहस्सों ॥। १४४ १० हजार और राक्षस देवोंके सोलह हजार [ भवन ] जानना चाहिये ॥ १३६ ॥ प्रथमादि पृथि - वियोंमें जो उत्कृष्ट आयुका प्रमाण है वही साधिक ( एक समय अधिक ) द्वितीय आदि पृथिवियोंकी जघन्य आयुका प्रमाण होता है । घर्मा पृथिवीमें तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंकी जघन्य. आयु दश हजार वर्ष प्रमाण होती है ॥ १३७॥ उत्कृष्ट आयु असुरकुमारोंकी एक सागरोपम, नाग-कुमारों की तीन पल्योपम, व्यन्तरोंकी एक पल्योपम, सुपर्णकुमारोंकी अढ़ाई पल्योपम, द्वीपकुमारोंकी दो पल्योपम और शेष भवनवासियोंकी उत्कृष्ट आयु डेढ़ पल्योपम प्रमाण है ॥ १३८ ॥ असुरकुमारोंका शरीरोत्सेध पच्चीस धनुष और शेष कुमारोंका दश धनुष प्रमाण है । व्यन्तर व ज्योतिषी देवोंके शरीर की उंचाई क्रमशः दश और सात धनुष प्रमाण जानना चाहिये ॥ १३९ ॥ व्यन्तर और कुमार देवोंके अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र पच्चीस योजन तथा ज्योतिषियोंके जघन्य अवधिका क्षेत्र संख्यात योजन प्रमाण है ॥ १४० ॥ असुरकुमारोंके उत्कृष्ट अवधिका क्षेत्र असंख्यात करोड़ योजन और शेष भवनवासी तथा ज्योतिषियोंके उत्कृष्ट अवधिका क्षेत्र असंख्यात हजार योजन प्रमाण है ॥ १४१ ॥ अब्बहुलभाग में प्रथम पृथवीके उपरिम व अधस्तन तल भाग में एक एक हजार योजन छोड़कर नरक स्थित हैं ।। १४२ ॥ तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दश लाख, तीन लाख, पांच कम एक लाख और केवल पांच, यह रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमसे नरकसंख्या कही गई है । इसको मिलानेपर समस्त बिलोंका प्रमाण चौरासी लाख होता है १ उश लोयाणं. २ उश धम्माय, ब धमाय. ३ क भउमागं, व तोमाणं. ४ उश सोसा. ५ उ सेखेयजोयणागि, श सेवेयसोयगाणि. ६ क ब जहणम्हि. ७ उ श जोइसन्नाणं, क जोयसगगाणं, ब. जोयसगगाणं. ८ क आपचहुलम्हि ९ क खिदियाय, ब खिदिआय. १० क ब सहस्सा. ११ क ब रयसंखारदणादीया. १२ उश पचिलित्ता १३ उश संवेग्गेण, ब संवगोण. १४ क चदुरासीदा सदसहस्सा, ब चदुरासीदिं सदसहस्सा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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