Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ६.१०१।
छडो उस
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ते सु या णःणामणिमंडिएसु दिध्वेसु । देवाण दु पासादा मणिकंचणमंडिया पथरा ॥ ९२ कणयमया पासादा बेहलियमग्रा व मरगयमया य' । ससिकंतसूरकंता कक्केयणप उमरायमया ॥ ९३ त्रपयवरवण्णा णी लुप्पलसंणिद्दा समुत्तुंगा । वरकमलकुसुमवण्णा पासादा होति रमणीया ॥ ९४ सत्ताणीयाण' तथा पासादा होति चणमयाणि । तिष्णि य परिसाण तहा मणिपासादा समुहद्वा दुरोप महीसी' पासादा विविधरयणसंछण्णा । सामाणियाण वि तहा" पासादा होंति णिडिट्ठा ॥ ९६ मणिकंचणपासात्रा सुराण तह याद रक्खणामाणं । भवसेसाण सुराणं पासादा होति णायस्वा ॥ ९७ मंदरमहाचलाणं वक्खारणगाण कंचणण गाणं । गयईतणगाण तथा कुलगिरिवेदट्ठसेलाणं ॥ ९८ त्रिसकरियरसेकाणं णाभिगिरीणं च सध्ववेदीणं । वरतोरणदाराणं गोउरदाराण य तहेव ॥ ९९ भण्णेस पष्वदाणं वर्णसंढाणं तदेव सन्वाणं । संखादीदाण तहा सायरदीवाण सब्वाणं ॥ १०० जमगाण जहा विट्टा तह तेर्सि विचिह्न होति पासादा । णिम्मलमणिरयदमया वरकं चणमंडिया पवरा ॥१०१ जमगाण जहा दिट्ठा सत्ताजीयादियाण' पासादा' । तह तेसि सन्वाणं पासादा होंति पायथा ॥ १०२ ते विविधरमंगलविल संतमहंत कंत कय सोहा | पवरच्छराहि भरिया " अच्छे रयरूवसारादि ॥ १०३
मण्डित उन दिव्य शैकोंपर मणि एवं सुवर्णसे मण्डित, सुत्रर्णमय, वैढूर्यमय, मरकतमय तथा चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन और पद्मरागसे निर्मित, नव चम्पक के समान उत्तम वर्णवाले नीलोत्पल के सदृश और उत्तन काल कुठुमके समान वर्गसे संयुक्त देवों के उन्नत रमणीय श्रेष्ट प्रासाद हैं ॥ ९२-९४ ॥ सात अनीकों के सुवर्णमय प्रासाद और तीन परिषदोंके मणिमय प्रासाद कहे गये हैं ॥ ९५ ॥ चार अग्र देवियोंके चार प्रासाद तथा सामानिक देवोंके प्रासाद विविध रत्नोंसे व्याप्त कहे गये हैं ।। ९६ ।। आत्मरक्ष नागक सुरोंके तथा शेष देवों के प्रासाद मणि एवं सुवर्णमय जानना चाहिये ॥ ९७ ॥ मन्दर महा पर्वत, वक्षार नग, कंचन नग, गजदन्त नग, कुलगिरि, वैताढ्य शैल, दिग्गज शैल, नामिगिरि, सत्र वेदियां, उत्तम तोरणद्वार तथा गोपुरद्वार, अन्य पर्वत, सत्र वनखण्ड, तथा असंख्यात सब द्वीप समुद्र, इन सबके ऊपर भी यमक के समान निर्मल मणियों एवं रत्नोंसे निर्मित और सुत्रर्णसें मण्डित उत्तम विविध प्रकारके प्रासाद होते हैं ।। ९८--१०१ ।। यमकोंके ऊपर जैसे सात अनीक आदिके प्रासाद कहे गये हैं वैसे ही प्रासाद उन सबके भी जानना चाहिये ॥ १०२ ॥ वे प्रासाद विविध प्रकारके रचे गये मंगलोंकी प्रकाशमान महाकान्ति द्वारा की गई शोभासे संयुक्त, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपबाळी उत्तम अप्सराओंसे परिपूर्ण, रत्नमय होते हुए भी बहुत प्रकारकी सुवर्ण, मणि एवं
१ उश कंचणमया य, व मरगयससा ध. २ उ रा सत्तअणीयाणि, प ब सताणीयाणि ३ व महासीन. ४श सामाणियाणि वितहा, प ब सामाणियाणि तहा. ५ उश तह यादरवचाणामाणं, प व तह आवश्यकानामा. डश अवि, प ब अमेय. ७ प तेसिं ति विविधपासादा, व तेर्सि त विवहपासादा ८ श सचानीयाज. ९ प व परिसंवा १० उश सोह. ११ श भरियं.
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