Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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विषय परिचय
निषधद्रह, देवकुरु, सूर, सुरस और विद्युत्तेज नामके ये ५ द्रह है । इनमें स्थित कमलभवनोंपर रहनेवाली नागकुमार देवियों के नाम ये हैं-- निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सूरकुमारी, सुलसा और विद्युत्प्रभकुमारी । इ.स. सिर देयों मनोका पनि कले हुए यहां दिनाओं और विदिशामाक निदेशक निम्न शब्दोंका प्रयोग किया गया है --सिंह, श्वान, धय, सिंह, वृषभ, गज, खर, गज, ढंख (ध्वांक्ष), धय, धूम, सिंह, मंडल, गोपति, खर, नाग और ढंख । इन शब्दोका प्रयोग उक्त अर्थमें कहीं अन्यत्र देखने में नहीं आया।
प्रत्येक द्रहके पूर्व-पश्चिम दोनों पार्श्वभागों में दस दस कंचन शैल हैं। यहां देवकुरु क्षेत्रमें मंदर पर्वतकी उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्वाति नामका शाल्मलि वृक्ष स्थित है । इसका वर्णन जम्बू पृक्षके समान है । इन देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंमें युगल-युगल रूपसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तीन पल्योपन प्रमाण आयुसे संयुक्त और तीन कोस ऊंचे होते हैं । आहार वे तीन दिनके पश्चात् करते हैं , वह भी बेरके बराबर | उनमें नपुंसक वेद नहीं होता-सभी स्त्री और पुरुष वेदवाले ही होते हैं। वे मरकर नियमतः देवों में ही जन्म लेते हैं।
(७) सातवे उद्देशमें १५३ गाथार्य है। इसमें विदेह क्षेत्रका वर्णन किया गया है । यह क्षेत्र निषध व नील कुलपर्वतोंके बीच में स्थित है । विस्तार उसका ३३६८४८ यो. प्रमाण है । इसके बीच में सुमेरु पर्वत और उससे संलग्न चार दिग्गज पर्वत हैं। इस कारण वह पूर्वविदेह और अपरविदेह रूप दो भागोंमें विभक्त हो गया है। बीचमें सीता और सीतोदा महानदियों के बहने के कारण प्रत्येकके और भी २-२ भाग हो गये हैं। उक्त चार भागोंमेंसे प्रत्येक भागके मध्यमें ४ वक्षार पर्वत और उनके भी बीचमें ३ विभंगा नदी हैं । इस कारण उनमेंसे प्रत्येकके भी ८-८ भाग हो गये हैं। इस प्रकार ये ३२ भाग ही ३२ विदेहके रूपमें प्रसिद्ध हैं।
इनमें नील पर्वतके दक्षिण, सीता नदीके उत्तर, उत्तरकुरुके पूर्व और चित्रकूट वक्षारके पश्चिम भागमें कच्छा विजय स्थित है। इसका विस्तार नील पर्वतके पासमें ७३३३. यो. और सीता नदीके तटपर २२१२ यो. है। इसके वीचोंबीच विजयार्ध पर्वत स्थित है । यहां रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियां नील पर्वतस्थ कुण्डोंसे निकल कर विजयाकी गुफाओंके भीतरसे जाती हुई सीता महानदीमें प्रविष्ट होती हैं । इस कारण उक्त कच्छा विजय ६ खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इनमें सीता नदीकी ओर बीचका आर्यखण्ड तथा शेष पांच म्लेच्छ खण्ड कहे गये हैं। आर्यखण्डके बीचमै क्षेमा नामकी नगरी स्थित है। इसका आयाम १२ यो. और विस्तार ९ यो. प्रमाण है । प्राकारपरिवेष्टित उक्त नगरीके १००० गोपुरद्वार और ५०० खिड़कीद्वार हैं। रथ्याओंकी संख्या १२ हजार निर्दिष्ट की गयी है । यहां चक्रवर्तीका निवास है जो ३२ हजार देशोंके अधिपतियोंका स्वामी होता है । इसके अधीन ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पट्टन, २६ हजार नगर, ५००-५०० ग्रामोसे संयुक्त ४००० मडंब, ३४ हजार कर्बट, १६ हजार खेट, १४ हजार संवाह, ५६ रलद्वीप और ९६ करोड़ ग्राम होते हैं। यहां क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण हैं , ब्राह्मण वर्ण नहीं है। जैन धर्मके सिवाय अन्य धर्म भी यहां नहीं पाये जाते । तीर्थकरादि ६३ शलाकापुरुषों की परम्परा यहां चलती ही रहती है । यह कच्छा विजयका वर्णन हुआ। ठीक यही वर्णनक्रम महाकच्छा आदि शेष ३१ विजयोंका भी समझना चाहिये।
___ कच्छा विजयके रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे अन्तरित मागध, वरतनु और प्रभास नामके तीन द्वीप हैं । इन तीनो द्वीपोंके अधिपति देव अपने अपने द्वीपके ही नामसे प्रसिद्ध हैं । दिग्विजयमें प्रवृत्त हुआ चक्रवर्ती प्रथमतः इन द्वीपोंके अधिपति देवोंको अपने अधीन करता है। इसी प्रकारसे दक्षिणकी ओरके देव-विद्याधरोंको
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