Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना
जब सूर्य प्रथम आभ्यंतर बीथी पर होता है तब सूर्य का दक्षिण अयन का प्रारम्भ होता है । जब वह अंतिम बाह्य बीथी पर स्थित होता है तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। जब एक अयन की समाप्ति होकर नवीन अयन का प्रारम्भ होता है उसे आवृति ( frequency or repetition ) कहा गया है। अयन के पलटने को भी आवृत्ति कहते हैं। दक्षिणायन को आदि लेकर आवृत्तियाँ पहली, तीसरी, पांचवी, सातवीं और नवमी, पांच वर्ष के भीतर होंगी क्योंकि पांच वर्ष में दस अयन होते हैं। इसी प्रकार उत्तरायण की आवृत्तियां इस युग में दूसरी, चौथी, छठवीं, आठवीं और दसवीं होती है। इस प्रकार दक्षिणायन की दूसरी आवृत्ति श्रावण मास के कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को होती है जबकि चंद्रमा मृगशीर्ष नक्षत्र में तिहता है। यह आवृत्ति १ चंद्रवर्ष के पश्चात् १२ दिन बीत जाने पर हुई। इसी प्रकार दक्षिणायन की तीसरी आवृत्ति श्रावण शुक्र दशमी के दिन चंद्रमा जब विशाखा नक्षत्र में स्थित रहता है तब होती है । इस प्रकार श्रावण मास में दक्षिणायन की पांच आवृत्तियां ५ वर्ष के भीतर होती है। उत्तरायण की प्रथम आवृत्ति १८३ दिन बीत जाने पर अर्थात् माघ मास में कृष्णपक्ष की सप्तमी ( चंद्र अर्द्ध वर्ष बीत जाने के ६ दिन पश्चात् ) तिथि को जब कि चंद्रमा हस्त नक्षत्र में स्थित रहता है, होती है। इसी प्रकार उत्तरायण की दूसरी आवृत्ति २६६ दिन पश्चात् या चंद्र वर्ष के बीत जाने पर १२ दिन पश्चात् उसी मान मास में शुक्ल पक्ष की चौथी तिथि पर जब कि चंद्रमा शतभिषक नक्षत्र में स्थित रहता है, तब होती है ।
इसी प्रकार अन्य आवृत्तियों का वर्णन है ।
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इसी आवृत्ति के आधार पर समान्तर भेदि बनने से ( formation of an arithmetical progression) विधुप और आवृत्ति की तिथि निकालने के लिये तथा शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का निश्चय करने के लिये सरल प्रक्रिया सूत्ररूप से दी गई है।
"विषु" पूर्ण विश्व में दिन और रात्रि के अंतराल बराबर होने को कहते हैं। इस समय सूर्य आभ्यंतर और बाह्य बीथियों के बीचवाली बीथी में रहता है, अथवा विषुवत् रेखा, ( भूमध्य रेखा ) पर स्थित रहता है। दक्षिणायन के प्रारम्भ के चंद्र के चतुर्थांश वर्ष बीत जाने के ३ दिन पश्चात् सूर्य इस बीथी को ९१३ दिन पश्चात् प्राप्त होता है। इस समय कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया रहती है और चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में स्थित रहता है। दूसरा विद्युप इस समय के चंद्र अर्द्ध वर्ष के बीत जाने पर ६ दिन पश्चात् होता है । जब कि चंद्र वैसाख मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को घनिष्ठा नक्षत्र में रहता है। इस प्रकार कुल विद्युपों की संख्या उत्सर्पिणी काल में निकाली जा सकती है। दक्षिण अयन, पस्य का असंख्यातर्वा भाग या होता है। विद्युप का प्रमाण इससे दूना है अर्थात् २ प्रतीक है।
बहां प पस्यका और & असंख्यात का
यहां अचर ज्योतिषियों का निरूपण किया गया है । बगश्रेणी ५६
बगभेणी २८
+ ३७५०० योजन है तथा समुद्र का विष्कम्भ
+
स्वयंभूवर द्वीप का विष्कम्भ ७५००० योजन है । मानुषोत्तर पर्वत से आदि लिया गया है तथा ५०००० योजन समुद्र की बाहरी सीमा के इसी तरफ तक का अंतराल
बगश्रेणी
'+ ( ७५००० - ११५२५००० - ५०००० ) योजन
२८
अथवा
जगभेणी २८
इसलिये कुल वलयों की संख्या
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• ११५००००० योजन होता है ।
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