Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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राजप्रश्नीयसूत्रे क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टं लीलास्थितशालभधिकाकम् ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरभचमरकुञ्जर वनलता पद्मलता भक्तिचित्रं स्तम्भोद्गतवरवज्रवेदिकापरिगताभिरामं विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्तमिव अर्चिः सहस्रमालनिक रूपकसहस्रकलितं भासमानं वा बुलाकर उससे उस प्रकार कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखभसयसंनिविट्ठं लीलट्ठियसालभंजियागं, इहामिय -उसम-तुरग-नर मगर -विहग-वालग-किन्नर - रुरु - सरभ-चमर-कुंजर-वणलय- पउमलय भत्तिचित्त ) हे देवानुप्रिय ! तुम बहुत ही जल्दी एक ऐसे यानविमान की विकुर्वणा करो कि जो सौ स्तम्भों से या सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, उनके उपर स्थित हो जिसमें निर्मित्त शालभंजिकाएँ ललिताङ्गसन्निवेशरूप लीला से स्थित हो, ईहामृग-वृक, वृषभ-वलीवर्द, तुरग-अश्व नर-मनुष्य, मकर-ग्राह, विहग-पक्षी, व्यालक-सर्प, किन्नर, व्यन्तरदेव, रुरु-मृग शरभ-अष्टापद, चमर-चमरी गायें, कुंजर – हाथी, वनलता. पद्मलता, इन सब की रचना विशेष से जो चित्र-अद्भूत हो, (खभुग्गयवरवइरवेइयापरिग्गयाभिराभं, विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्स मालणियं) स्तम्भों के ऊपर की श्रेष्ठ वज्रवेदिका से युक्त हुआ जो रमणीय हो, तथा समान आकार वाले दो विद्याधर रूप यंत्र से जो सहित हो, सैकडों किरणों से जो विराजित हो (रूवगसहस्सकलियं ) सैकडों प्रकार के रूप जिसके दृष्टिपथ हों, अर्थात् अनेकाकारों से जो युक्त हो, ते मा प्रमाणे प्रयु (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखभसयसंनिविट्ठ लीलट्रियसालभंजियागं, ईयामिय- उसभ-तुरग -नर-मगर-विहगवालग-किन्नर-रुरु-सरभचमर-कुंजर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं ) देवानुप्रिय ! तमे १६ मे मेवा યાન વિમાનની વિદુર્વણા કરો કે જે સે થાંભલાઓ કે સેંકડો થાભલાઓથી યુક્ત હોય, તેમાં લલિત અંગેથી યુક્ત એવી લીલાવાળી શાલભંજિકાઓ (પૂતળીઓ)
तरेसी ।य, भने मां भृग, वृ४-१३-वृषभ-Rela-तु२-२५३, १२भास, भ४२-यार, विड-पक्षी, व्यास-सप हिन्नन-व्यत२३व, २२-भृग, શરભ-અષ્ટાપદ, અમર ચમરી ગાયો, કુંજર-હાથી, વનલતા, પશ્ચલતા, આ બધાની स्थना विशेषथी अभुत मित्रोथी यित्रित होय. (खंभुग्गयवरवइरवेइयापरिग्गया. भिरामं, विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणिय) थानासानी ५२ ઉત્તમ વજ વેદિકાથી જે યુક્ત હોય, તેમજ સમાન આકારવાળા બે વિદ્યાધર ३५ यथा २ युत काय, से थी रे मतुंडाय (रूवगसहस्सकलियं)
શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧