Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 704
________________ ६९२ राजप्रनीयसूत्रे चतुर्मुखेषु महापथेषु प्राकारेषु अड्डालकेषु चरिकासु द्वारेषु गोपुरेषु तोरणेषु आरामेषु उद्यानेषु वनेषु वनराजिषु काननेषु वनपण्डेषु अर्चनिकां कुर्वन्ति, यत्रैव सूर्याभो देवो यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स सूर्याभो देवो यत्रैव नन्दा गिक देवोंने (रियाणं देवेणं एवं बुत्ता समाणा) जो कि सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार कहे गये थे (जाव पडिणित्ता) यावत् उसके पूर्वोक्त कथन को स्वीकार करके (रियाभे विमाणे ) सूर्याभविमानमें ( सिंघाडएस तिएसु चउकसु चच्चरे चउम्मुहेसु, महापहेसु, पागारे, अट्ठालएसु चरियासु दरिसु. गोपुरेसु, तोरणेसु, आरामेसु, उज्जाणेसु. वणेसु, वणराईसु, काणणेसु, वण संडेसु अच्चणिय करेंति) श्रृङ्गाटकों में त्रिकों में चतुष्कों में चत्वरों में, चतुर्मुखों में, महापथों में प्राकारों में, अट्टालिकाओं में चरिकाओं में द्वारों में गोपुरी में, तोरणों में आरामों में, उद्यानों में वनों में वनराजियों में काननां में, एवं वनषंडो में मार्गों की अथवा वृक्षादिकों की पूजा की (जेणेव सूरिया देवे जब पच्चपिणंति ) फिर इस बात की खबर जहां सूर्याभ देव था. वहां जाकर दी. यहां ( एवंवृत्ता समाणा जाव पडिणित्ता) में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'हृष्ट तुष्ट चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः, परमसौमनस्थिताः हर्षवशत्रिसर्पहृदयः करतलपरिगृहीतं शिर आवत्तै मस्तके अंजलि कृत्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति' इस ( सूरियाभेण देवेणं एवं वृत्ता समाणा ) मे सूर्याल हेववडे आज्ञापित थयेला हुता ( जाव पढिसुणित्ता ) यावत् तेना पूर्वोस्त अथनने स्वीहारीने ( सूरियाभे विमाणे ) सूर्याल विमानमा ( सिंघाडएस तिरसु चउक्कएसु चचरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु, पागारे, अट्टालएसु, चरियासु, दारेसु, गोपुरेसु. तोरणेसु, आरामेसु उज्जाणेसु बणे, वणराई, काणणेसु, वणसंडेसु, अञ्च्चणियं करेति ) श्रृंगारभां त्रिप्रेम, ચતુકેમાં, ચવામાં, ચતુર્મુખામાં, મહાપથામાં, પ્રાકારામાં અટ્ટાલિકામા, थरिठाओ।मां द्वाशमां, गोपुरोमां, तोरोमां, आराभाभी, उद्यानामा बनभां વનરાજએમાં, કાનનેામાં અને વનખડામાં માર્ગોની અથવા વૃક્ષાંર્દિકની અર્ચના ४२. ( जेणेव सूरियाभे देवे जाव पञ्चपिणंति ) त्यार पछी अर्थ संपन्न यह भवानी अमर सूर्यालद्वेव ने थडथडी अडीं' ' एवं पुत्ता समाणा जाव पडिसुणित्ता' भ ? यावत् यह छे तेथी अडीं "हृष्टतुष्टचित्तानंदित्ताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थितः, हर्षवशविसर्पद्धृदयः करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त्त मस्तके अंजलिं कृस्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति આ પાઠના સગ્રહ થયા છે આ પદોની " શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૧

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