Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ शास्त्राभिधेयः शास्त्रफल: शास्त्रसंबंध: भगवतीपरिमाणः उद्देशकार्यः श्रीरायचन्द्र - जिनागम संग्रहे शतक १. परिचयः शिष्योनी मतिमां मंगलना परिमहने माडे अर्थात् 'आशा मंगल छे' ए प्रमाणे शिष्यो पोतानी मतिमां शाखना मंगळपणानो स्वीकार करे माटे, तथा शिष्टपुरुषोना आचारना परिपालनमा मंगल कई छे. आ यात आगळ पण कचाई गई छे. " " १२. अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' रिति नाम्नैवोक्ता इति ते पुनर्नोच्यन्ते तत एव श्रोतृप्रवृत्यादीष्टफलसिद्धेः, तथाहि :- इह भगवताऽर्थव्याख्या अभिधेयतयोक्ताः तासां च प्रज्ञापना, बोधो वाऽनन्तरफलम्, परंपराफलं तु मोक्षः, स चास्य आप्तवचनत्वादेव फलता सिद्धः नहि भाप्तः साक्षात् पारंपर्येण वा यन्त्र मोक्षाङ्गं तत् प्रतिपादयितुमुत्सहते, अनासत्वप्रसङ्गात् तथाऽयमेव संबन्ध:- ‘यदुतास्य शास्त्रस्य इदं प्रयोजनम्' इति तदेवमस्य शास्त्रस्यैकश्रुतस्कन्धरूपस्य, सातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य, उद्देशकदशसहस्त्रीप्रमाणस्य, पट्त्रिंशत्प्रश्नसहस्रप्रमाणस्याष्टाशीतिसहस्राधिकक्षद्रयप्रमाणपदराशेर्मङ्गलादीनि दर्शितानि अथ प्रथमे शते प्रन्थान्तरपरि भाषयाऽध्ययने दशोदेशका भवन्ति, उद्देशकाश्चाऽध्ययनार्थदेशाभिधायिनोऽध्ययनविभागाः - उद्दिश्यन्ते उपधानविधिना शिष्यस्याचार्येण 'यथैतावन्तमभ्ययनभागमधीष्य' इत्येवमुद्देशाः स एव उद्देशका, तांथ सुखधरण-स्मरणादिनिमित्तमाद्याभिधेयाभिधानद्वारेण संग्रहीतुमिमां गाथामाहः-‘रायगिह' इत्यादि. • १२. यी व्याख्याप्ति' ए प्रमाणे शासना नाममाचयी व शासना अभिधेय वगेरे सामान्वरीते कहेबाइ गया है. जेवी तेने करीबी अहिं कहता नथी. कारण के, ते नामची ज ( अभिधेष बगेरेने जागी) श्रोताओनी शास्त्र तरफ प्रवृत्ति वगेरे इश्फलनी सिद्धि पई जशे तथादि - अभिधेयादि दर्शावे छेः- आ शास्त्रमां भगवाने अर्थव्याख्याओ अभिधेयपणे कही छे. अने ते व्याख्याओनुं प्रज्ञापन अथवा बोध ते साक्षात् फल छे. परंपरा फल तो मोक्ष छे. आ शास्त्र आप्तवचनरूप होवाची ज ए मोक्षरूप फल सिद्ध छे. कारण के, साक्षात् अथवा परंपराए जे गोधनुं अंग न होय तेने कहेबामाटे आप्तपुरुषो उत्साह करता नथी अर्थात् मोक्षना अंगभूत कार्यमा ज आस पुरुषो प्रवृत्ति करे छे. अन्यथा जो तेन न करे तो आप्तपणानी हानि बयानो प्रसंग आवे तथा आज 'आ शास्त्रनुं आ प्रयोजन हे' ए प्रमाणे शास्खनो ( प्रयोज्य प्रयोजकमात्र) संबंध छे. आ प्रमाणे एक शुतस्कंधस्वरूप, सो अध्ययनोधी अधिक अध्ययनवाळा दसइजार उद्देशकोना प्रमाणवाळा, छत्रीसहजार प्रक्षोना प्रमाणवाळा अने बेलाख अठाशीहजार २,८८,००० पदोना समूहयाळा आ शाखनां मंगलादिक देखाव्यां हये प्रथम शतक, जे अन्यधोनी परिभाषा संकेत प्रमाणे अध्ययन कद्देवाय छे, लेने विषे दस उद्देशको होय छे. उद्देशको एटले के अध्ययन- शतक-ना अर्थदेशने कनारा अध्ययनना विभागो 'अध्ययनना आटा विभागने तु भण, ' एममा उपधानविधिपूर्वक आचार्य वडे जे उद्देशाव ते उद्देशेक कद्देवाय ते उद्देशकोनुं सुखपूर्वक धारण तथा स्मरण रहेवाने माटे तेमां ( दश उद्देशामां ) आतां आय प्रथम - नामोना कथनद्वारे ते दशे उद्देशाने संग्रहवा आ रायगिह' इत्यादि गावाने हे छे रोहगि १ पण २ दुक्ले ३ कंसपओसे. य४ पगइ ५ पुदवीओ, ६ जाते. ७ नेरइए. ८ चाले. ९ गुरुए व १० चलणाओ. राजगृह नगरने विषे १ चलन २ दुःख ३ कांक्षाप्रदोष ४ प्रकृति ५ पृथ्वीओ ६ जावंत जेटला ७ नैरधिक. ८ वा ९ गुरुक अने १० चलनादि. ११. अधिकृतगाथाच यद्यपि वक्ष्यमाणोदेशकदशकाऽभिगमे स्वयमेवावगम्यते, तथाऽपि बालानां सुखावबोधार्थमभिधीयते तत्र 'रायगिह' ति लुप्तसप्तम्येकवचनत्याद् राजगृहे नगरे वक्ष्यमाणोदेशकदशकस्यार्थो भगवता श्रीमहावीरेण दर्शित इति व्याख्येयम् एवमन्यत्रापीष्टविभक्तयन्तताऽवसेया. 'चलण' त्ति चलनविषयः प्रथमोदेशक : 'चलमाणे चलिए' इत्याद्यर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः. 'दुक्खे' त्ति दुःखविषयो द्वितीयः 'जीयो भदन्ता ! सयंकृतं दुःखं वेदयति ? इत्यादिप्रश्ननिर्णयार्थ इत्यर्थः 'फसपओसे' ति का मिध्यात्वमोहनीयोदयसमुधोऽन्यान्यदर्शनग्रहणरूपो जीवपरिणामः स एव प्रकृष्टो दोषो जीवदूषणं काङ्क्षाप्रदोषस्तद्विपवस्तृतीयः 'जीवेन भदन्त ! फागुल्मोहनीय कर्म कृतम् !' इत्यादर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः चकारः समुचये. 'पराई' त्ति प्रकृतयः कर्मभेदाश्चतुर्थोदेिशकस्यार्थः 'कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः इत्यादिश्चासौ. 'पुढवीओ'त्ति रत्नप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमे वाच्याः, 'कति भदन्त ! पृथिव्य:' ? इत्यादि च सूत्रमस्य. 'जावं ते 'ति यावच्छन्दोपलक्षितः पटः यावतो भदन्त ! अवकाशान्तरात् सूर्यः' इत्यादिसूत्रवासी. 'नेरइए 'ति नैरधिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः, 'नैरभिदन्त ! निरये उत्पद्यमानः' इत्यादि च तत्सूत्रम् 'बाले 'त्ति वाढशब्दोपलक्षितोऽष्टमः 'एकान्तबाडो भदन्त ! मनुष्यः' इत्यादिसूत्रवासी. 'गुरु' ति षष्ठः, मंगल विना मंगल थाय नहीं एम स्वीकारर्बु जोइए. हवे वादी कहे छे के, कदाच अमे शास्त्र अने मंगल माटे उपर कहेवायेलं एक सरखी रीते स्वीकारीए तो अमा शुं अनिष्ट थाय ?. अनिष्टता दर्शावेछे केः- मंगलाभावरूप दूषण आवे. अर्थात् तमारा स्वीकारप्रमाणे शास्त्रमां मूकेलं मंगल बीजा मंगलविना मंगलरूप न थाय अने ज्यारे शास्त्रोक्त मंगल बीजा मंगल सिवाय मंगल न थाय तो पछी शास्त्र पण मंगल नथी. ए 'मंगलाभावरूप दूषण स्पष्टरीते आवे छे. आ गाथामां मुकेलो 'वा' शब्द 'अनवस्था अथवा मंगलाभाव' ए बेमांथी कोइ दूषण आवशे ए प्रमाणे पक्षांतरनो सूचक छे.- विशेषावश्यक सूत्र, गाथाटीका १५. १. मूलच्छायाः- राजगृहे १ चलनम्. २ दुःखम् ३ काङ्क्षाप्रदोषश्च. ४ प्रकृतिः ५ पृथिव्यः. ६ यावन्तः ७ नैरयिकः. ८ बालः ९ गुरुकश्च १० चलनानि. १. आ वात 'विशेषावश्यकसूत्र मां पण छे. ते आ प्रमाणे - शास्त्र मंगलरूप छे, तो पण शिष्यमतिमां मगंलपरिग्रह थाय ते माटे शास्त्रमां बीजुं मंगल कर्तुं छे, अर्थात् 'आ शास्त्र मंगल छे' ए प्रमाणे शिष्य पोतानी बुद्धिमां शास्त्रनी मंगलता स्वीकारे समजे - ए माटे बीजुं मंगल कर्तुं छे. ए तात्पर्य छे. विशेषावश्यक सूत्र, गाथा टीका २०. २. आ भगवती सूत्रमां सो शतको छे अने 'शतक' तथा 'अध्ययन' ए बन्ने शब्दो सांकेतिक होई एक ज अर्थने कद्देवावाळा छे; माटे ज श्रीवृत्तिकारे शतकने बदले अध्ययन शब्द प्रयोज्यो छे. ३. 'उद्देश' शब्दथी खार्थमां 'क' प्रत्यय आवी 'उद्देशक' शब्द वने छे.श्री अभयदेव. ४. ते ते उद्देशकना सूचन माटे आ गाथामां मात्र दश उद्देशामां आवता शरुआतना ज एक एक शब्दनो उल्लेख कर्यो छे. - अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 ... 372