Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 27
________________ शतक १.-परिचयः भगवत्सुधर्मस्वामीप्रणीत भगवतीसूत्र. को आनमस्कार संक्षेपथी करवो होय तो सिद्धने अने साधुओने नमस्कार करवो युक्त छे; कारण के, सिद्धोनुं अने साधुओनुं ग्रहण कर्यु तो अर्हत् नमस्कारचर्चाः सरल विषेपण साधणानो व्यभिचार नहीं होवाथी तेओनुं ग्रहण पण सहेलाइथी थई जशे अने जो विस्तारपूर्वक नमस्कार करवो होय तो ऋषभखा- मईदादिने पृथक म्याटिक अतोने भिन्नभिन्न-नामोच्चारणपूर्वक-नमस्कार करवो जोईए. समा०-एम नहीं. जेम अविशेष (सामान्यरीते) मनुष्योने नमस्कार कर्ये छते नमस्कार, नुपादिक मोटा पुरुषोना नमस्कारनुं फळ नमस्कताने मळतुं नथी तेम अविशेष साधुमात्रने नमस्कार कर्ये छते अर्हत् विगेरेना नमस्कारनं फळ मळंत करमादिने पृथक नथी. तेथी विशेषथी-भिन्न भिन्न प्रकारे-ग्रहण करी अहेतादिन पण नमस्कार करवो जोइए. परंतु भिन्नभिन्न अर्हत व्यक्तिओनां नामोचारणपूर्वक नमस्कार घटे। नमस्कार करवो अशक्य ज होवाथी ते प्रतिव्यक्ति नमस्कार अहीं कथनीय नथी, अने एटला माटे ज सुशक्य साधारण अर्हतनमस्कार अहीं कयों छे मईदादिने भिन्न जेमां सर्व अर्हत व्यक्तिओनो समावेश थयेलो छे. शंकाः-यथाप्रधानन्यायने अंगीकरीने जे प्रधान होय तेने प्रथम नमस्कार करवो उचित छ, अर्थात् आ नमस्कारनो हेतु. पंच नमस्कारमा प्रथम सिद्ध, पछी अर्हत, आचार्य, उपाध्याय अने साधु, ए प्रकारे आनुपूर्वी (अनुक्रम) राखवी युक्त छे, कारणके, सर्वप्रकारे कृतकृत्य प्रथम सिद्धोने नम. थंवाथी सर्वथी प्रधान जे सिद्धो तेमने प्रथम नमस्कार करवो जोइए. समा०-एम नहीं. कारण के, अर्हत्ना उपदेशथी ज सिद्धो ओळखाय छे तथा तीर्थना स्कार शामाटे नहीं ! पलक दोबाथी अर्हतो ज अत्यंत उपकारक छे माटे ते आनुपूर्वी (क्रग) अर्हतथी शरु थती-अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु, एप्रमाणे सिद्धपूर्व अईदने ज युक्त छे. शंकाः-जो एम होय-उपकारकने ज प्रथम नमस्कार करवो उचित होय-तो ते क्रम आचार्यथी शरु थतो-प्रथम आचार्य पछी अर्हतादि, ए. नमस्कारनो हेतु. प्रमाणे-राखवो जोइए; अर्थात् आचार्योने प्रथम नमस्कार करवो जोइए. कारण के, कोइ वखते अर्हतो पण आचार्योथी ज्ञायमान-ओळखाय-छे, अने तेथी प्रथम आचार्योंने ज तेओ पण अत्यन्त उपकारक होवाथी प्रथम नमस्करणीय छे. समा०-एम नहीं. अर्हतना उपदेशथी ज आचार्योर्नु उपदेश देवानुं सामर्थ्य छे. आचार्यों नमस्कार पटे । स्वतंत्रपणे उपदेशद्वारा अर्थनी ज्ञापकतावाळा नथी-अर्थने जणावता नथी, तेथी तत्त्वतः अर्हतोज सकल अर्थोना ज्ञापक-जणावबाबाळा-छे. वळी अर्हतनी मईदधीन आचार्य- . सभास्वरूप आचार्यों छे अर्थात् आचार्यों अर्हतनी सभाना सभ्यो-सभासदो-छे तेथी तेमने-आचार्योने-नमस्कार करी अर्हतोने नमस्कार करवो सामथ्र्य. अयुक्त छे. कयु छ के-"कोई पण माणस परिषदने-कचेरीने नमस्कार करी पछी राजाने नमस्कार न करे, परंतु पहेला ज राजाने ज नमस्कार करे" ए प्रमाणे पंचपरमेष्ठिने प्रथम नमस्कार करी हालना मनुष्योने श्रुतज्ञान अत्यन्त उपकारक होवाथी अने तेना (श्रुतना ) द्रव्यश्रुत अने भावश्रुत एवा बे भेदने विषे द्रव्यश्रुत, भावश्रुतनुं कारण होवाथी संज्ञाअक्षररूप द्रव्यश्रुतने नमस्कार करता शास्त्रकार कहे छे:- द्रव्यश्चतप्राधान्यः [णमो बंभीए लिवीए'त्ति-] ब्राह्मी लिपिने नमस्कार हो. पुस्तक वगेरेने विषे अक्षरनी जे रचना ते लिपि. ते अढारे प्रकारनी लिपि श्रीऋषभदेवप्रभुए पोतानी ब्राह्मी नामनी पुत्रीने बंतावी जेथी ते 'ब्राह्मी' कहेवाय छे. कयुं छे के-“श्रीजिनेश्वरे (आदीश्वरप्रभुए ) जमणे हाथे लेखरूप लिपिर्नु ब्राझीलिपिः विधान ब्राह्मीने शिखव्यु." तेथी 'ब्राह्मी' ए प्रमाणे, लिपिनुं स्वरूपविशेषण छे. शंकाः-आ शास्त्र ज मंगलरूप छे, छतां शामाटे शास्त्रकारे जुदा मंगलनो उल्लेख कर्यो ! तेम करवाथी--मंगलरूप शास्त्रमा पण जुएं मंगल करवाथी-'अनवस्था' वगेरे दोषोनी प्राप्ति थशे. समा०- सत्य छे. परंतु छतां पुनः मंगल : अमङ्गलता-मङ्गलाभावः-शास्ने यद् मङ्गलमुपात्तं तदन्यमझलशून्यत्वाद् न मालम्, तस्य च मङ्गलवाभावे शास्त्रमपि न मङ्गलम्, इति व्यक्त एव मालाभाव इति भावः. 'वा' शब्दः पक्षान्तरसूचकः-अनवस्था, मङ्गलाभावो वेत्यर्थः-विशेषावश्यकगाथाटीका १५. ११. एतत्समानार्थोऽयम्:सीसमइमंगलपरिग्गहत्यमेतं तदभिहाणं.-विशेषावश्यकसूत्रगाथा, २०. किन्तु शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थम्, शिष्यो हि तस्मिनभिहिते 'मालमेत. रछात्रम्, इत्येवं खमती तन्मङ्गलतापरिग्रहं करोतीति भावः-विशेषावश्यकगाथाटीका, २०. १. अर्थात् लाघव इच्छनार शास्त्रकारे वे नमस्कार ज करवा जोइए:-एक नमस्कार सिद्धोने करवो जोइए, जेथी सिद्धोमा सर्वमुक्तात्माओनो अने अतीतादितीर्थकरोनो अन्तर्भाव थाय छे; अने बीजो नमस्कार साधुओने करवो जोइए, जेथी साधुओमा, विहरता अहंतोनो, आचार्योनो अने उपाध्यायोनो अन्तर्भाव थइ शके छे, कारण के ते-अर्हतो, आचार्यो भने उपाध्यायो-पण साधुओ ज होय छे. २. आ अर्थवाळो प्राकृत पाठ "विशेषावश्यक' सूत्रमा ३२१३ मी गाथामां छे. ३. आ कथन विशेषावश्यक' सूत्रमा ३२१३ मी गाथामां आवेलं छे. ४. अढार लिपिओ कही छे ते आ प्रमाणेः-१हंसलिपि, २ भूतलिपि, ३ जक्षीलिपि, ४ राक्षसीलिपि, ५ उडीलिपि, यवनीलिपि, ७ तुरुकीलिपि. ८ कीरीलिपि, १ द्रविडीलिपि, १० सिंघवीयलिपि, ११ मालवीनीलिपि, १२ नटीलिपि, १३ नागरी लिपि, १४ लाटलिपि, १५ पारसीलिपि, १६ अनिमित्तीलिपि, १७ चाणाक्यलिपि, १८ मूलदेवीलिपि-विशेषावश्यकसूत्र, गाथाटीका ४६४. ५. आ गाथा आवश्यकनियुक्तिमा उपोद्धात नियुक्तिमा छे अने मा अर्थने दर्शावनारो संस्कृत पाठ श्रीकल्पसूत्रमा आदीश्वरचरित्रमा छे. ६. विशेषणो बे प्रकारां छ:-एक व्यावर्तक विशेषण अने बीजें खरूप विशेषण, ब्यावर्तक विशेषण ते ज कहेवाय के जे, विशेष्य पदार्थने बीजा बधा पदार्थोथी व्यायत्त-जुदो-करे, अने स्वरूप विशेषण ते ज कहेवाय के जे, मात्र खतो व्यावृत्त विशेष्य पदार्थना खरूपने दर्शावे. ७. 'अनवस्था' आदिशब्दथी बीजा दोषो पण आवेछे एम समजवू. मा वात विशेष प्रकारे आ प्रमाणे स्पष्ट करेली छः प्रेरक-प्रतिवादी-कहे छे के:-हे आचार्य । तमे आ शास्त्रमा मंगल कयु छे माटे तमाएं शास्त्र मंगलपणाने प्राप्त करतुं नथी. जे अमंगल-मंगलरूप न होय तेमांज मंगलर्नु प्रहण थाय छे; जे पोताना खभावे ज मंगलरूप छे; तेमा (पीजु) मंगल करवायी शु! लोक-संसार-मां पण 'धोळाने घोलू करवं, चिकणाने चिकणु करव' एम बनतुं नथी माटे मंगलरूप शास्त्रने पण मंगल करवानी जरूर नथी. छतां शास्त्रमा प्रहण करेल मंगलनी अन्यथा-बीजे प्रकारे-उपपत्ति-सफलता-न थती होवाथी एम स्वीकारवू ज जोइए के शान मंगलरूप नथी; कदाच मंगलरूपने पण मंगल करनार एम स्वीकारे के मंगलरूप शास्त्रनुं पण बीजुं मंगल कराय छे; तो तेम स्वीकारबामा 'अनवस्था' दूषण आवशे एटले कोइ पण स्थळे मंगलने अवस्थान थशे नहीं. अनवस्थानं स्वरूप दर्शावेळे:-मंगलरूपशास्त्र छे तो पण तेर्नु वीर्जु मंगल कराय छे. तमज मंगलरूप मंगलनु पण वीर्जु मंगल कर जोइए, तेमज तेर्नु पण बीजु मंगल अने तेनुं पण इतर मंगल कर जोइए. ए प्रमाणे भावतु 'अनवस्था' दूषण कोण अटकावी शके ? अर्थात् मंगलरूप शास्त्रनु पण मंगल करवाथी 'अनवस्था' आवशे.हवे कदाच मंगलने पण मंगल करनार वादी एम माने के शासमा करेल मंगलने मंगल करवा जुदं मंगल न कर्य होवाथी आवतुं अनवस्था' षण पण इच्छता नथी. तो पण मंगलने मंगल करवाथी तो (बीजं पण) दूषण आवेछे. दूषण दावे छे केः-शानने मंगल करवा शास्त्रमा जे मंगल करेल छे तेने-शास्त्रोक्त मंगलने-पण मंगल करवा अनवस्था दूषणना भया जा बीजु मंगल न मूकाय तो जेम मंगलरूप शास्त्र-पण बीजा मंगलनी गेरहाजरीथी अमंगल गणाय छे तेम ज बीजा मंगलनी अविद्यमानताथी मंगलरूप मंगल पण मंगल नहीं गणाय. तात्पर्य एवं छे के:-जो मंगलने मंगल करवा बीजु मंगल नहीं करवायी 'अनवस्था' दूषण नथी इच्छता तो भले, पण जैम 'मगलरूप शाह पण बीजा मंगल सिवाय मंगल यतुं नथी' एम स्वीकाराय छ तेम शास्त्र अने मंगलमाटे न्यायनी सरखाइ होवाथी मंगलरूप मंगल पण बीजा www.jainelibrary.org Jain Education international For Private & Personal Use Only

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