Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सत्र : एक परिशीलन १७ मंगल है। यों भी कह सकते हैं कि जिसके द्वारा आत्मा पूज्य, विश्ववन्द्य होता है वह मंगल है।५९ इस प्रकार इन व्युत्पत्तियों में लोकोत्तर मंगल की अद्वितीय महिमा प्रकट की गई है। महामन्त्र : एक अनुचिन्तन __ भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में मंगलवाक्य के रूप में "नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं" "नमो बंभीए लिवीए" का प्रयोग हुआ है। नमोकार मन्त्र जैनों का एक सार्वभौम
और सम्प्रदायातीत मन्त्र है। वैदिकपरम्परा में जो महत्त्व गायत्री मन्त्र को दिया गया है, बौद्धपरम्परा में जो महत्त्व “तिसरन" मन्त्र को दिया गया है, उससे भी अधिक महत्त्व जैनपरम्परा में इस महामन्त्र का है। इसकी शक्ति अमोघ है और प्रभाव अचिन्त्य है। इसकी साधना और आराधना से लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। यह महामन्त्र अनादि और शाश्वत है। सभी तीर्थंकर इस महामन्त्र को महत्त्व देते आये हैं। यह जिनागम का सार है। जैसे तिल का सार तेल है; दूध का सार घृत है; फूल का सार इत्र है; वैसे ही द्वादशांगी का सार नमोक्कार महामन्त्र है। इस महामन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान का सार रहा हुआ है, क्योंकि पंच परमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान कुछ भी नहीं है। पंच परमेष्ठी अनादि होने के कारण यह महामन्त्र अनादि माना गया है। यह महामन्त्र कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न या कामधेनु के समान फल देने वाला है। यह सत्य है कि जितना हम इस महामन्त्र को मानते हैं उतना इस महामन्त्र के सम्बन्ध में जानते नहीं। मानने के साथ जानना भी आवश्यक है, जिससे इस महामन्त्र के जप में तेजस्विता आती है। ___ 'मननात् मन्त्रः' मनन करने के कारण ही मन्त्र नाम पड़ा है। मन्त्र मनन करने को उत्प्रेरित करता है, वह चिन्तन को एकाग्र करता है, आध्यात्मिक ऊर्जा/शक्ति को बढ़ाता है। चिन्तन/मनन कभी अन्धविश्वास नहीं होता, उसके पीछे विवेक का आलोक जगमगाता है। उसका सबसे बड़ा कार्य है-अनादि काल की मूर्छा को तोड़ना; मोह को भंग कर मोहन के दर्शन करना। मन्त्र मूर्छा को नष्ट करने का सर्वोत्तम उपाय है। मूर्छा ऐसा आध्यात्मिक रोग है, जो सहसा नष्ट नहीं होता; उसके लिए निरन्तर मन्त्र जप की आवश्यकता होती है। यह महामंत्र साधक के अन्तर्मानस में यह भावना पैदा करता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर से परे हूँ। वह भेदविज्ञान पैदा करता है। मन्त्र हृदय
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