Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
View full book text
________________
भगवती सूत्र : एक परिशीलन ६९ इसी तरह भगवान् महावीर ने मरण के भी दो प्रकार बताये-१. बालमरण और २. पण्डितमरण। बालमरण के बारह प्रकार हैं। बालमरण से मर कर जीव चतुर्गत्यात्मक संसार की अभिवृद्धि करता है और पण्डितमरण से मर कर जीव दीर्घ संसार को सीमित कर देते हैं।
इन प्रश्नों का विस्तार से उत्तर सुनकर आर्य स्कन्दक अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने भगवान् महावीर के पास आहती दीक्षा ग्रहण की।
जब हम महावीरयुग का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उस युग में इस प्रकार के प्रश्न दार्शनिकों के मस्तिष्क को झकझोर रहे थे और वे यथार्थ समाधान पाने के लिये मूर्धन्य मनीषियों के पास पहुँचते थे। तथागत बुद्ध के पास भी इस प्रकार के प्रश्न लेकर अनेक जिज्ञासु पहुँचते रहे, पर तथागत बुद्ध उन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टालते रहते थे। मज्झिमनिकाय,२०१ में जिन प्रश्नों को तथागत ने अव्याकृत कहा था, वे ये हैं
१. क्या लोक शाश्वत है ? २. क्या लोक अशाश्वत है ? ३. क्या लोक अन्तमान है ? ४. क्या लोक अनन्त है ? ५. क्या जीव और शरीर एक है ? ६. क्या जीव और शरीर भिन्न है ? ७. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ८. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ?
इन प्रश्नों के उत्तर में विधान के रूप में बुद्ध ने कुछ भी नहीं कहा है। उनके मन में सम्भवतः यह विचार रहा होगा कि यदि मैं लोक और जीव को नित्य कहता हूँ तो उपनिषद् का शाश्वतवाद मुझे मानना पड़ेगा। यदि मैं अनित्य कहता हूँ तो चार्वाक का भौतिकवाद स्वीकार करना पड़ेगा। उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों पसन्द नहीं थे, इसीलिये ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त कह दिया कि लोक अशाश्वत हो या शाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही। मैं तो इन्हीं जन्म-मरण के विधात को बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है और इसी में तुम्हारा हित है। इस तरह बुद्ध ने अशाश्वतानुच्छेदवाद स्वीकार किया है। इसका भी यह कारण था कि उस यग में जो वाद थे, उन वादों में उनको दोष दृग्गोचर हए। अतएव किसी वाद का अनुयायी होना उन्हें श्रेयस्कर नहीं लगा २०२ पर महावीर ने उन वादों के गुण और दोष दोनों देखे। जिस वाद में जितनी सचाई थी उतनी मात्रा में स्वीकार कर, सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। तथागत बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप में देना पसन्द नहीं करते थे, उन सभी प्रश्नों के उत्तर भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद के रूप में प्रदान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org